Saturday 6 September 2014

वेद हिन्दू सनातन धर्म का आधार स्तम्भ

 ""वेद हिन्दू सनातन धर्म का आधार स्तम्भ"" है...!

जैसा कि आप सभी जानते हैं कि.... ""वेद हिन्दू सनातन धर्म का आधार स्तम्भ"" है...!

परन्तु दुर्भाग्य से.... आधुनिक एवं कलुषित शिक्षा प्रणाली के कारण... आज अत्यधिक पढ़े लिखे लोग भी हमारे अपने धार्मिक एवं परम पवित्र वेद के बारे में बहुत ही कम जानते हैं...!

वेद..... 'विद' शब्द से बना है.... जिसका अर्थ होता है...... ज्ञान या जानना... अथवा , ज्ञाता या जानने वाला..!

सिर्फ जानने वाला... और, जानकर जाना-परखा ज्ञान.... अनुभूत सत्य.... जाँचा-परखा मार्ग....ही वेद है..!

और, हमारे इसी वेद में संकलित है...... 'ब्रह्म वाक्य'।
आपको यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि....वेद..... मानव सभ्यता के सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं.......।

इनमे से ....वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं......जिनमे ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं...... जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है।

ज्ञातव्य है कि....यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है.... और, यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है।

वेद को 'श्रुति' भी कहा जाता है..... और ... 'श्रुति' शब्द 'श्रु' धातु से शब्द बना है......... 'श्रु' यानी सुनना।

कहते हैं कि...... इसके मन्त्रों को ईश्वर (ब्रह्म) ने प्राचीन तपस्वियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था..... जब वे गहरी तपस्या में लीन थे।

सर्वप्रथम ईश्वर ने चार ऋषियों को इसका ज्ञान दिया:- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य।

वेद ......वैदिककाल की वाचिक परम्परा की अनुपम कृति हैं...... जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिछले छह-सात हजार ईस्वी पूर्व से चली आ रही है।

विद्वानों ने...... संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद इन चारों के संयोग को समग्र वेद कहा है..... और, ये चारों भाग सम्मिलित रूप से श्रुति कहे जाते हैं।

बाकी ग्रन्थ स्मृति के अंतर्गत आते हैं।

संहिता इसका मन्त्र भाग है.... और, वेद के मन्त्रों में सुंदरता भरी पड़ी है।

वैदिक ऋषि जब स्वर के साथ वेद मंत्रों का पाठ करते हैं, तो चित्त प्रसन्न हो उठता है.... और, जो भी सस्वर वेदपाठ सुनता है... वो मुग्ध हो उठता है।

ब्राह्मण : ब्राह्मण ग्रंथों में मुख्य रूप से यज्ञों की चर्चा है... और, वेदों के मंत्रों की व्याख्या है.... तथा, यज्ञों के विधान और विज्ञान का विस्तार से वर्णन है।

मुख्य ब्राह्मण 3 हैं : (1) ऐतरेय, ( 2) तैत्तिरीय और (3) शतपथ।

आरण्यक : वन को संस्कृत में कहते हैं 'अरण्य'.... इसीलिए, अरण्य में उत्पन्न हुए ग्रंथों का नाम पड़ गया 'आरण्यक'।

मुख्य आरण्यक पाँच हैं :
(1) ऐतरेय, (2) शांखायन, (3) बृहदारण्यक, (4) तैत्तिरीय और (5) तवलकार।

उपनिषद : उपनिषद को वेद का शीर्ष भाग कहा गया है और यही वेदों का अंतिम सर्वश्रेष्ठ भाग होने के कारण "वेदांत" कहलाए।

उपनिषद में ईश्वर, सृष्टि और आत्मा के संबंध में गहन दार्शनिक और वैज्ञानिक वर्णन मिलता है..।

उपनिषदों की संख्या 1180 मानी गई है, लेकिन वर्तमान में 108 उपनिषद ही उपलब्ध हैं।

जिनमे से मुख्य उपनिषद हैं- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वर।

असंख्य वेद-शाखाएँ, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद विलुप्त हो चुके हैं.... और, वर्तमान में ऋग्वेद के दस, कृष्ण यजुर्वेद के बत्तीस, सामवेद के सोलह, अथर्ववेद के इकतीस उपनिषद उपलब्ध माने गए हैं।

वैदिक काल :
प्रोफेसर विंटरनिट्ज मानते हैं कि वैदिक साहित्य का रचनाकाल 2000-2500 ईसा पूर्व हुआ था।

दरअसल... वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई.... अर्थात, यह धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: माना यह जाता है कि पहले वेद को तीन भागों में संकलित किया गया- ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद जिसे वेदत्रयी भी कहा जाता था।

ऐसी मान्यता है कि.... वेद का विभाजन भगवान् राम के जन्म के पूर्व पुरुरवा ऋषि के समय में हुआ था... और, बाद में अथर्ववेद का संकलन ऋषि अथर्वा द्वारा किया गया।

दूसरी ओर कुछ लोगों का यह भी मानना है कि...... भगवान कृष्ण के समय द्वापरयुग की समाप्ति के बाद महर्षि वेद व्यास ने वेद को चार प्रभागों संपादित करके व्यवस्थित किया।
इन चारों प्रभागों की शिक्षा चार शिष्यों पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु को दी... और, उस क्रम में ऋग्वेद- पैल को, यजुर्वेद- वैशम्पायन को, सामवेद- जैमिनि को तथा अथर्ववेद- सुमन्तु को सौंपा गया।

अगर इस गणना को ही मान लिया जाये तो भी.... लिखित रूप में आज से 6508 वर्ष पूर्व पुराने हैं... वेद।

और.....इस तथ्य को भी नाकारा नहीं जा सकता है कि .....कृष्ण के आज से 5112 वर्ष पूर्व होने के पुख्ता प्रमाण ढूँढ लिए गए हैं।

वेद के कुल चार विभाग हैं:

ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।

१. ऋग-स्थिति,
२. यजु-रूपांतरण,
३. साम-गतिशील और
४. अथर्व-जड़।

ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है।

इन्ही चारों के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई।

ऋग्वेद : ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान। इसमें 10 मंडल हैं और 1,028 ऋचाएँ। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियाँ और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें 5 शाखाएँ हैं - शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन।

यजुर्वेद : यजुर्वेद का अर्थ : यत् + जु = यजु। यत् का अर्थ होता है गतिशील तथा जु का अर्थ होता है आकाश। इसके अलावा कर्म। श्रेष्ठतम कर्म की प्रेरणा। यजुर्वेद में 1975 मन्त्र और 40 अध्याय हैं। इस वेद में अधिकतर यज्ञ के मन्त्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। यजुर्वेद की दो शाखाएँ हैं कृष्ण और शुक्ल।

सामवेद : साम अर्थात रूपांतरण और संगीत। सौम्यता और उपासना। इसमें 1875 (1824) मन्त्र हैं। ऋग्वेद की ही अधिकतर ऋचाएँ हैं। इस संहिता के सभी मन्त्र संगीतमय हैं, गेय हैं। इसमें मुख्य 3 शाखाएँ हैं, 75 ऋचाएँ हैं और विशेषकर संगीतशास्त्र का समावेश किया गया है।

अथर्ववेद : थर्व का अर्थ है कंपन और अथर्व का अर्थ अकंपन। ज्ञान से श्रेष्ठ कम करते हुए जो परमात्मा की उपासना में लीन रहता है वही अकंप बुद्धि को प्राप्त होकर मोक्ष धारण करता है। अथर्ववेद में 5987 मन्त्र और 20 कांड हैं। इसमें भी ऋग्वेद की बहुत-सी ऋचाएँ हैं। इसमें रहस्यमय विद्या का वर्णन है।

उक्त सभी में परमात्मा, प्रकृति और आत्मा का विषद वर्णन और स्तुति गान किया गया है। इसके अलावा वेदों में अपने काल के महापुरुषों की महिमा का गुणगान व उक्त काल की सामाजिक, राजनीतिक और भौगोलिक परिस्थिति का वर्णन भी मिलता है।

छह वेदांग : (वेदों के छह अंग)- (1) शिक्षा, (2) छन्द, (3) व्याकरण, (4) निरुक्त, (5) ज्योतिष और (6) कल्प।

छह उपांग : (1) प्रतिपदसूत्र, (2) अनुपद, (3) छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), (4) धर्मशास्त्र, (5) न्याय तथा (6) वैशेषिक।

ये 6 उपांग ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इसे ही षड्दर्शन कहते हैं, जो इस तरह है:- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत।

वेदों के उपवेद : ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।

आधुनिक विभाजन : आधुनिक विचारधारा के अनुसार चारों वेदों का विभाजन कुछ इस प्रकार किया गया-

(1) याज्ञिक, (2) प्रायोगिक और (3) साहित्यिक।

वेदों का सार है...... उपनिषदें और उपनिषदों का सार...... 'गीता' को माना है।

इस क्रम से वेद, उपनिषद और गीता ही धर्मग्रंथ हैं, दूसरा अन्य कोई नहीं।

स्मृतियों में वेद वाक्यों को विस्तृत समझाया गया है।

जबकि....वाल्मिकी रामायण और महाभारत को इतिहास तथा पुराणों को पुरातन इतिहास का ग्रंथ माना है।

विद्वानों ने भी वेद, उपनिषद और गीता के पाठ को ही उचित बताया है।

ऋषि और मुनियों को दृष्टा कहा गया है..... और, वेदों को ईश्वर वाक्य।

वेद ऋषियों के मन या विचार की उपज नहीं है.... और, ऋषियों ने वह लिखा या कहा जैसा कि... उन्होंने पूर्णजाग्रत अवस्था में देखा... सुना और परखा।

मनुस्मृति में श्लोक (II.6) के माध्यम से कहा गया है कि वेद ही सर्वोच्च और प्रथम प्राधिकृत है... और, वेद किसी भी प्रकार के ऊँच-नीच, जात-पात, महिला-पुरुष आदि के भेद को नहीं मानते।

ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं..... जिनमें से लगभग 30 नाम महिला ऋषियों के हैं।

जन्म के आधार पर जाति का विरोध ऋग्वेद के पुरुष-सुक्त (X.90.12), व श्रीमद्भगवत गीता के श्लोक (IV.13), (XVIII.41) में मिलता है।

श्लोक : श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते।
तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोद्वैधे स्मृतिर्त्वरा॥
अर्थात : जहाँ कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहाँ वेद की बात की मान्य होगी।-वेद व्यास

प्रकाश से अधिक गतिशील तत्व अभी खोजा नहीं गया है..... और, न ही मन की गति को मापा गया है।

परन्तु.... हमारे ऋषि-मुनियों ने..... मन से भी अधिक गतिमान ....किंतु, अविचल का साक्षात्कार किया और उसे 'वेद वाक्य' या 'ब्रह्म वाक्य' बना दिया।

अथ वेद कथा....



फलित ज्योतिष सीखें :

किस भाव से क्या पहचानें कुंडली के 12 भाव : एक परिचय

* प्रथम भाव से जातक की शारीरिक स्थिति, स्वास्थ्य, रूप, वर्ण, चिह्न, जाति, स्वभाव, गुण, आकृति, सुख, दु:ख, सिर, पितामह तथा शील आदि का विचार करना चाहिए।

* द्वितीय भाव से धनसंग्रह, पारिवारिक स्थिति, उच्च विद्या, खाद्य-पदार्थ, वस्त्र, मुखस्थान, दाहिनी आंख, वाणी, अर्जित धन तथा स्वर्णादि धातुओं का संचार होता है।

* तृतीय भाव से पराक्रम, छोटे भाई-बहनों का सुख, नौकर-चाकर, साहस, शौर्य, धैर्य, चाचा, मामा तथा दाहिने कान का विचार करना चाहिए।

* चतुर्थ भाव से माता, स्थायी संपत्ति, भूमि, भवन, वाहन, पशु आदि का सुख, मित्रों की स्थिति, श्वसुर तथा हृदय स्थान का विचार करना चाहिए।

* पंचम भाव से विद्या, बुद्धि, नीति, गर्भ स्थिति, संतान, गुप्त मंत्रणा, मंत्र सिद्धि, विचार-शक्ति, लेखन, प्रबंधात्मक योग्यता, पूर्व जन्म का ज्ञान, आध्यात्मिक ज्ञान, प्रेम-संबंध, इच्छाशक्ति आदि का विचार करना चाहिए।

* षष्ठ भाव से शत्रु, रोग, ऋण, चोरी अथवा दुर्घटना, काम, क्रोध, मद, मोह, लोभादि विकार, अपयश, मामा की स्थिति, मौसी, पापकर्म, गुदा स्थान तथा कमर संबंधी रोगों का विचार करना चाहिए।

* सप्तम भाव से स्त्री एवं विवाह सुख, स्त्रियों की कुंडली में पति का विचार, वैवाहिक सुख, साझेदारी के कार्य, व्यापार में हानि, लाभ, वाद-विवाद, मुकदमा, कलह, प्रवास, छोटे भाई-बहनों की संतानें, यात्रा तथा जननेन्द्रिय संबंधी गुप्त रोगों का विचार करना चाहिए।

* अष्टम भाव से मृत्यु तथा मृत्यु के कारण, आयु, गुप्त धन की प्राप्ति, विघ्न, नदी अथवा समुद्र की यात्राएं, पूर्व जन्मों की स्मृति, मृत्यु के बाद की स्थिति, ससुराल से धनादि प्राप्त होने की स्थिति, दुर्घटना, पिता के बड़े भाई तथा गुदा अथवा अण्डकोश संबंधी गुप्त रोगों का विचार करना चाहिए।

* नवम भाव से धर्म, दान, पुण्य, भाग्य, तीर्थयात्रा, विदेश यात्रा, उत्तम विद्या, पौत्र, छोटा बहनोई, मानसिक वृत्ति, मरणोत्तर जीवन का ज्ञान, मंदिर, गुरु तथा यश आदि का विचार करना चाहिए।

* दशम भाव से पिता, कर्म, अधिकार की प्राप्ति, राज्य प्रतिष्ठा, पदोन्नति, नौकरी, व्यापार, विदेश यात्रा, जीविका का साधन, कार्यसिद्धि, नेता, सास, आकाशीय स्थिति एवं घुटनों का विचार करना चाहिए।

* एकादश भाव से आय, बड़ा भाई, मित्र, दामाद, पुत्रवधू, ऐश्वर्य-संपत्ति, वाहनादि के सुख, पारिवारिक सुख, गुप्त धन, दाहिना कान, मांगलिक कार्य, भौतिक पदार्थ का विचार करना चाहिए।


* द्वादश भाव से धनहानि, खर्च, दंड, व्यसन, शत्रु पक्ष से हानि, बायां नेत्र, अपव्यय, गुप्त संबंध, शय्या सुख, दु:ख, पीड़ा, बंधन, कारागार, मरणोपरांत जीव की गति, मुक्ति, षड्यंत्र, धोखा, राजकीय संकट तथा पैर के तलुए का विचार करना चाहिए।


प्राचीन मंत्रों से जानिए कैसे होते हैं 12 राशियों के जातक बारह राशियों के जातक का स्वरूप



विश्व की ज्योतिषीय गणना में नवग्रहों और बारह राशियों का उल्लेख है। सभी ग्रहों के राजा सूर्य हैं। अन्य ग्रह हैं- चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु।


बारह राशियां हैं- मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन। कुंडली के जिस अंक के साथ में चन्द्रमा होता है, उसी अंक पर आने वाली राशि जातक की राशि होती है।

1. मेष राशि के जातक का स्वरूप

मेष राशि में चन्द्रमा के विद्यमान होने पर जातक के लिए कहा गया है-

लोलनेत्र: सदा रोगी धर्मार्थकृतनिश्चय:।
पृथुघ्ङ: कृतघ्नश्च निष्पापो राजपूजित:।।
कामिनीहृदयानन्दो दाता भीतो जलादपि।
चण्डकर्मा मृदुश्चान्ते मेषराशौ भवेन्तर:।।

(मानसागरी 1। 266-267)

अर्थात् जिस जातक का जन्म मेष राशि के चन्द्रमा में होता है, वह चंचल नेत्रों वाला, प्राय: रोगी, धर्म और धन दोनों का मूल्यांकन करने वाला, भारी जंघाओं वाला, कृतघ्न, पापरहित, राजा को मान्य, कामिनियों को आनंदित करने वाला, दानी, जल से भयभीत रहने वाला और कठोर कार्य करने वाला परंतु अंत में विनम्र होता है।

2. वृष राशि के जातक का स्वरूप

जिस जातक का जन्म वृष राशि में विद्यमान चन्द्र में होता है, उसका फल इस प्रकार बताया गया है-

भोगी दाता शुचिर्दशो महासत्त्वों महाबल:।
धनी विलासी तेजस्वी सुमित्रश्च वृषे भवेत्।।

(मानसागरी 1। 268)

अर्थात वृष राशि स्थित चन्द्र में जन्म लेने वाला जातक भोगी, दानी, पवित्र, कुशल, सत्त्वसंपन्न, महान् बली, धनवान, भोग-विलासरत, तेजस्वी और अच्छे मित्रों वाला होता है।

3. मिथुन राशि के जातक का स्वरूप

मिष्टवाक्यो लोलदृष्टिर्दयालुर्मैथुनप्रिय:।
गान्धर्ववित्कण्ठरोगी कीर्तिभागी धनी गुणी।।
गोरो दीर्घ: पटुर्वक्ता मेधावी च दृढ़व्रत:।
समर्थो न्यायवादी च जायते मिथुने नर:।।

(मानसागरी 1। 269-270)

अर्थात मिथुन राशि में जन्म लेने वाला जातक मृदुभाषी, चंचल दृष्टि, दयालु, कामुक, संगीतप्रेमी, कंठ रोगी, यशस्वी, धनी, गुणवान, गौरवर्ण एवं लंबे शरीर वाला, कार्यकुशल, वक्ता, बुद्धिमान, दृढ़ संकल्प, सभी प्रकार से समर्थ और न्यायप्रिय होता है।

4. कर्क राशि के जातक का स्वरूप

कार्यकारी धनी शूरो धर्मिष्ठो गुरुवत्सल:।
शिरोरोगी महाबुद्धि: कृशाङ्ग: कृत्यवित्तम:।।
प्रवासशील: कोपान्धोऽबलो दु:खी सुमित्रक:।
अनासक्तो गृहे वक्र: कर्कराशौ भवेन्नर:।।

(मानसागरी 1। 271-272)

अर्थात चन्द्र के कर्क राशि में होने पर जो जातक जन्म लेता है, वह जातक कार्य करने वाला, धनवान, शूर, धार्मिक, गुरु का प्रिय, सिर से रोगी, अतीव बुद्धिमान, दुर्बल शरीर वाला, सभी कार्यों का ज्ञाता, प्रवासी, भयंकर क्रोधी, निर्बल, दु:खी, अच्छे मित्रों वाला, गृह में अरुचि रखने वाला तथा कुटिल होता है।

5. सिंह राशि के जातक का स्वरूप

क्षमायुक्त: क्रियाशक्तो मद्यमांसरत: सदा।
देशभ्रमणशीलश्च शीतभीत: सुमित्रक:।।
विनयी शीघ्रकोपी च जननीपितृवल्लभ:।
व्यसनी प्रकटो लोके सिंहराशौ भवेन्नर:।।

(मानसागरी 1। 273-274)

अर्थात सिंह राशि में चन्द्र के विद्यमान होने पर जातक क्षमाशील, कार्य में समर्थ, मद्य-मांस में सदैव आसक्त, देश में भ्रमण करने वाला, शीत से भयभीत, अच्छे मित्रों वाला, विनयशील, शीघ्र क्रुद्ध होने वाला, माता-पिता का प्रिय, व्यसनी (नशा आदि बुरे कार्यों का अभ्यस्त) तथा संसार में प्रख्यात होता है।

6. कन्या राशि के जातक का स्वरूप

विलासी सुजनाह्लादी सुभगो धर्मपूरित:।
दाता दक्ष: कविर्वृद्धो वेदमार्गपरायण:।।
सर्वलोकप्रियो नाट्यगान्धर्वव्यसने रत:।
प्रवासशील: स्त्रीदु:खी कन्याजातो भवेन्नर:।।

(मानसागरी 1। 275-276)

कन्या राशि में उत्पन्न व्यक्ति विलासी, सज्जनों को आनंदित करने वाला, सुंदर, धर्म से परिपूर्ण, दानी, निपुण, कवि, वृद्ध, वैदिक मार्ग का अनुगामी, सभी लोगों का प्रिय, नाटक, नृत्य और गीत की धुन में आसक्त, प्रवासी एवं स्त्री से दु:खी होता है।

7. तुला राशि के जातक का स्वरूप

अस्थानरोषणो दु:खी मृदुभाषी कृपान्वित:।
चलाक्षश्चललक्ष्मीको गृहमध्येऽतिविक्रम:।।
वाणिज्यदक्षो देवानां पूजको मित्रवत्सल:।
प्रवासी सुहृदामिष्टस्तुलाजातो भवेन्नर:।।

(मानसागरी 1। 277-278)

तुला राशि में उत्पन्न व्यक्ति अकारण क्रोध करने वाला, दु:खी, मधुरभाषी, दयालु, चंचल नेत्रों एवं अस्थिर धन वाला, घर में ही पराक्रम दिखाने वाला, व्यापार में चतुर, देवताओं का पूजन करने वाला, मित्रों के प्रति दयालु, परदेशवासी तथा मित्रों का प्रिय पात्र होता है।

8. वृश्चिक राशि के जातक का स्वरूप

बालप्रवासी क्रूरात्मा शूर: पिङ्गललोचन:।
परदाररतो मानी निष्ठुर: स्वजने भवेत्।।
साहसप्राप्तलक्ष्मीको जनन्यामपि दुष्टधी:।
धूर्तश्चौरकलारम्भी वृश्चिके जायते नर:।।

(मानसागरी 1। 279-280)

वृश्चिक राशि में उत्पन्न व्यक्ति बाल्यावस्था से ही परदेश में रहने वाला, क्रूर स्वभाव वाला, शूर, पीले नेत्रों वाला, परस्त्री में आसक्त, अभिमानी, अपने भाई-बंधुओं के प्रति निर्दयी, अपने साहस से धन प्राप्त करने वाला, अपनी माता के प्रति भी दुष्ट बुद्धि वाला, धूर्तता और चोरी की कला का अभ्यास करने वाला होता है।

9. धनु राशि के जातक का स्वरूप

शूर: सत्यधिया युक्त: सात्त्विको जननन्दन:।
शिल्पविज्ञानसम्पन्नो धनाढ्यो दिव्यभार्यक:।।
मानी चरित्रसम्पन्नो ललिताक्षरभाषक:।
तेजस्वी स्थूलदेहश्च धनुर्जात: कुलान्तक:।।

(मानसागरी 1। 281-282)

यदि धनुराशिगत जन्म हो तो शूर, सत्य बुद्धि से युक्त, सात्त्विक, मनुष्यों के हृदय को आनंदित करने वाला, शिल्प (मूर्तिकला)-विज्ञान से संपन्न, धन से युक्त, सुन्दर स्त्री वाला, अभिमानी, चरित्रवान, सुंदर शब्दों को बोलने वाला, तेजस्वी, मोटे शरीर वाला तथा कुल का नाशक होता है।

10. मकर राशि के जातक का स्वरूप

कुले नष्टो वश: स्त्रीणां पण्डित: परिवादक:।
गीतज्ञो ललिताग्राह्यो पुत्राढ्यो मातृवत्सल:।।
धनी त्यागी सुभृत्यश्च दयालुर्बहुबान्धव:।
परिचिन्तितसौख्यश्च मकरे जायते नर:।।

(मानसागरी 1। 283-284)

मकर राशि में जन्म लेने वाला व्यक्ति अपने कुल में नष्ट (सबसे हीन अवस्था वाला), स्त्रियों के वशीभूत, विद्वान, परनिंदक, संगीतज्ञ, सुंदर स्त्रियों का प्रिय पात्र, पुत्रों से युक्त, माता का प्रिय, धनी, त्यागी, अच्छे नौकरों वाला, दयालु, बहुत भाइयों (परिवार) वाला तथा सुख के लिए अधिक चिंतन करने वाला होता है।

11. कुंभ राशि के जातक का स्वरूप

दातालस: कृतज्ञश्च गजवाजिधनेश्वर:।
शुभदृष्टि: सदा सौम्यो धनविद्याकृतोद्यम:।।
पुण्याढ्य स्नेहकीर्तिश्च धनभोगी स्वशक्तित:।
शालूरकुक्षिर्निर्भीक: कुम्भे जातो भवेन्नर:।।

(मानसागरी 1। 285-286)

यदि कुंभ राशि में जन्म हो तो मनुष्य दानी, आलसी, कृतज्ञ, हाथी, घोड़ा और धन का स्वामी, शुभ दृष्टि एवं सदैव कोमल स्वभाव वाला, धन और विद्या हेतु प्रयत्नशील, पुत्र से युक्त, स्नेहयुक्त, यशस्वी, अपनी शक्ति से धन का उपभोग करने वाला तथा निर्भीक होता है।

12. मीन राशि के जातक का स्वरूप

गम्भीरचेष्टित शूर: पटुवाक्यो नरोत्तम:।
कोपन: कृपणो ज्ञानी गुणश्रेष्ठ: कुलप्रिय:।।
नित्यसेवी शीघ्रगामी गान्धर्वकुशल: शुभ:।
मीनराशौ समुत्पन्नौ जायते बन्धुवत्सल:।।

(मानसागरी 1। 287-288)

जिसका जन्म मीन राशि में होता है, वह गंभीर चेष्टा करने वाला, शक्तिशाली, बोलने में चतुर, मनुष्यों में श्रेष्ठ, क्रोधी, कृपण, ज्ञानसंपन्न, श्रेष्ठ गुणों से युक्त, कुल में प्रिय, नित्य सेवाभाव रखने वाला, शीघ्रगामी, नृत्य-गीतादि में कुशल, शुभ दर्शन वाला तथा भाई-बंधुओं का प्रेमी होता है।


ग्रहों से होने वाली परेशानियां इस प्रकार हैं


                                    ग्रहों से होने वाली परेशानियां इस प्रकार हैं-
                         ********************************************
सूर्य - सरकारी नौकरी या सरकारी कार्यों में परेशानी, सिर दर्द, नेत्र रोग, हृदय रोग, अस्थि रोग, चर्म रोग, पिता से अनबन आदि।
चंद्र - मानसिक परेशानियां, अनिद्रा, दमा, कफ, सर्दी, जुकाम, मूत्र रोग, स्त्रियों को मासिक धर्म, निमोनिया।
मंगल- अधिक क्रोध आना, दुर्घटना, रक्त विकार, कुष्ठ रोग, बवासीर, भाइयों से अनबन आदि।
बुध - गले, नाक और कान के रोग, स्मृति रोग, व्यवसाय में हानि, मामा से अनबन आदि।
गुरु - धन व्यय, आय में कमी, विवाह में विलम्ब, संतान बाधा, उदर विकार, गठिया, कब्ज, गुरु व देवता में अविश्वास आदि।
शुक्र - जीवन साथी के सुख में बाधा, प्रेम में असफलता, भौतिक सुखों में कमी व अरुचि, नपुंसकता, मधुमेह, धातु व मूत्र रोग आदि।
शनि - वायु विकार, लकवा, कैंसर, कुष्ठ रोग, मिर्गी, पैरों में दर्द, नौकरी में परेशानी आदि।
राहु - त्वचा रोग, कुष्ठ, मस्तिष्क रोग, भूत प्रेत वाधा, दादा से परेशानी आदि।
केतु - नाना से परेशानी, भूत-प्रेत, जादू टोने से परेशानी, रक्त विकार, चेचक आदि।
इस प्रकार ग्रहों के कारकत्व को ध्यान में रखते हुए उपाय करना चाहिए।

जन्मपत्री


जन्मपत्री में प्राणियों की जन्मकालिक ग्रहस्थिति से जीवन में होनेवाली शुभ अथवा अशुभ घटनाओं का निर्देश किया जाता है। जन्मपत्री का स्वरूप, फलादेश विधि और संसार के अन्य देशों एवं संस्कृतियों में उसके स्वरूप तथा शुभाशुभ निर्देश की प्रणालियों में बहुत भिन्नता पायी जाती है।
परिचय
आकाश में दो प्रकार के प्रकाश पिंड दिखाई देते हैं। प्रथम वे जो स्थिर दिखाई पड़ते है, नक्षत्र कहलाते हैं। दूसरे वे जो नक्षत्रों के बीच सदा अपना स्थान परिवर्तित करते रहते हैं, ग्रह कहलाते हैं। पृथ्वी अपनी धुरी पर प्रति चौबीस घंटों में पश्चिम से पूर्व की ओर घूम जाती है जिससे सभी ग्रह और नक्षत्र पूर्व में उदित होकर पश्चिम में जाते तथा अस्त होते दिखाई पड़ते है। किंतु प्रति दिन ध्यान से देखने पर पता चलता है कि ग्रह नित्य आकाशीय पिंडों की यात्रा के विपरीत, पश्चिम से पूर्व की ओर चला करते हैं। इस प्रकार सूर्य जिस मार्ग से चलकर वर्ष में नक्षत्रचक्र की एक परिक्रमा पूरी करता है, उसे क्रांतिवृत्त (ecliptic) कहते है। प्राचीन ज्योतिषियों ने इसी क्रांतिवृत्त का बारह भागकर उन्हें राशि (sign) की संज्ञा दी है। इनमें कुछ तारापुंजों से जीवधारियों जैसी आकृतियाँ बन जाती हैं। राशियों के नाम उन्हीं जीवों के अनुसार- मेष, वृष, मिथुन, कर्क (केकड़ा), सिंह, कन्या, तुला, (तराजू), बृश्चिक (बिच्छू), धनु (धनुष) मकर (घड़ियाल), कुंभ (घड़ा), मीन (मछली) रखे गए हैं।
लग्न और भाव
पृथ्वी की दैनिक गति के कारण बारह राशियों का चक्र (zodiac) चौबीस घंटों में हमारे क्षितिज का एक चक्कर लगा आता है। इनमें जो राशि क्षितिज में लगी होती है उसे लग्न कहते हैं। यहाँ लग्न और इसके बाद की राशियाँ तथा सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु आदि ग्रह जन्मपत्री के मूल उपकरण हैं। लग्न से आरंभकर इन बारह राशियाँ को द्वाद्वश भाव कहते हैं। इनमें लग्न शरीरस्थानीय हैं। शेष भाव शरीर से संबंधित वस्तुओं के रूप में गृहीत हैं। जैसे लग्न (शरीर), धन, सहज (बंधु), सुख, संतान, रिपु, जाया, मृत्यु, धर्म, आय (लाभ), और व्यय (खर्च) ये 12 भावों के स्वरूप हैं।
इन भावों की स्थापना इस ढंग से की गई है कि मनुष्य के जीवन की संपूर्ण आवश्यकताएँ इन्हीं में समाविष्ट हो जाती हैं। इनमें प्रथम (लग्न), चतुर्थ (सुख), सप्तम (स्त्री) और दशम् (व्यापार) इन चार भावों को केंद्र मुख्य कहा गया है।
वस्तुत: आकाश में इनकी स्थिति ही इस मुख्यता का कारण है। लग्न पूर्व क्षितिज और क्रांति वृत्त का संयोग बिंदु कहा गया है, सप्तम भी पश्चिम क्षितिज और क्रांति वृत्त का संयोग बिंदु ही है। ऐसे ही दक्षिणोत्तर वृत्त और क्रांतिवृत्त का वह संयोग बिंदु जो हमारे क्षितिज से नीचे है चतुर्थ भाव तथा क्षितिज से ऊपर हमारे शिर की ओर (दक्षिणोत्तर वृत्त और क्रांति वृत्त) का संयोग बिंदु दशम भाव कहलाता है। इन्हीं केंद्रों के दोनों और जीवनसंबंधी अन्य आवश्यकताओं एवं परिणामों को बतलानेवाले स्थान हैं। लग्न (शरीर) के दाहिनी ओर व्यय है, बाईं ओर धन का घर है। चौथे (मुख) के दाहिनी और बंधु और पराक्रम हैं, बाईं ओर संतान और विद्या हैं। सप्तम स्थान (स्त्री) के दाहिनी ओर शत्रु और व्याधि हैं तो बाईं ओर शत्रु और व्याधि हैं तो बाईं ओर मृत्यु है। दशम (व्यवसाय) के दाहिनी ओर भाग्य और बाईं ओर आय (लाभ) है।
जन्मपत्री द्वारा प्राणियों के जीवन में घटित होनेवाले परिणामों के तारतम्यों को बतलाने के लिए इन बारह राशियों के स्वामी माने गए सात ग्रहों में परस्पर मैत्री, शत्रुता और तटस्थता की कल्पना की गई है और इन स्वाभाविक संबंधों में भी विशेषता बतलाने के लिए तात्कालिक मैत्री, शत्रुता और तटस्थता की कल्पना द्वारा अधिमित्र, अधिशत्रु आदि कल्पित किए गए है। इसी प्रकार ग्रहों की ऊँचीनीची राशियाँ भी उपर्युक्त प्रयोजन के लिए ही कल्पित की गई हैं (क्योंकि फलित के ये उच्च वास्तविक उच्चों से बहुत दूर हैं)। इन कल्पनाओं के अनुसार किसी भाव में स्थित ग्रह यदि अपने गृह में हो तो भावफल उत्तम, मित्र के गृह में मध्यम और शत्रु के गृह में निम्न कोटि का होगा। यदि ऐसे ही ग्रह अपने उच्च में हों तो भावफल उत्तम और नीच में हो तो निकृष्ट होगा। इसके मध्य में अनुपात से फलों का तारतम्य लाना होता है। तात्कालिक मैत्री, शत्रुता, समता आदि से स्वाभाविक मैत्री आदि के द्वारा निर्दिष्ट शुभाशुभ परिणामों में और अधिकता न्यूनता करनी होती है।
जन्मपत्री में मंगल की राशि मेष और बृश्चिक तथा मकर उच्च है। वृष और तुला शुक्र की राशि तथा मीन उच्च है। मिथुन और कन्या बुध की अपनी राशि तथा कन्या ही उसका उच्च भी है। कर्क चंद्रमा की राशि तथा वृष उच्च है। सिंह सूर्य की राशि तथा मेष उच्च है। धनु और मीन बृहस्पति की अपनी राशि तथा कर्क उच्च है। ऐसे ही मकर और कुंभ का स्वामी शनि तथा तुला उसका उच्च है। जन्मपत्री में द्वादश भावों को किस प्रकार अंकित किया जाता है, यह जानने के लिए प्रस्तुत कोष्ठक द्रष्टव्य हैं।
हिंदू और यूनानी दोनों प्रणालियों में भावों की कल्पना एक सी किंतु 6, 11, और 12 भावों में भेद स्पष्ट है। यद्यपि हिंदू प्रणाली में झूठे भाव स शत्रु और रोग दोनों का विचार किया जाता है किंतु उनमें शत्रु भाव ही मुख्य है। यूनानी ज्योतिष में ग्यारहवाँ मित्र भाव और बारहवाँ त्रुभाव है। हिंदू ज्योतिष में 11वाँ आय और बारहवाँ व्यय है।
जन्मकुंडली में ग्रहों के संबंध में अन्य कल्पनाएँ प्राणिवर्ग के पारस्परिक संबंधों और अन्य संभाव्य परिस्थितियों पर आधारित है जिनके द्वारा प्रस्तुत किए गए फलादेश प्राणियों पर घटित होनेवाली क्रियाओं के अनुरूप ही होते हैं। ग्रहों की स्वाभाविक मैत्री, विरोध और तटस्थता तथा तात्कालिक विद्वेष, सौहार्द्र और समभाव की मान्यताएँ जन्मकुंडली के लिए आधारशिला के रूप में गृहीत हैं। इसी प्रकार सूर्य आदि सात ग्रहों को क्रमश: आत्मा, मन, शक्ति, वाणी, ज्ञान, काम, दु:ख, तथा मेष आदि बारह राशियों की क्रम से शिर, मुख, उर (वक्ष) हृदय, उदर, कटि, वस्ति, लिंग, उरु, घुटना, जंघा और चरण आदि की कल्पनाएँ, प्राणियों की मानसिक अवस्था तथा शारीरिक विकृति, चिह्न आदि को बताने के लिए की गई हैं। ग्रहों के श्वेत आदि वर्ण, ब्राह्मण आदि जाति, सौम्य, क्रूर, आदि प्रकृति की मान्यताएँ भी प्राणिवर्ग के रूप, रंग, जाति और मनोवृत्ति के परिचय के लिए ही हैं। चोरी गई वस्तु के परिज्ञान के लिए इनका सफल प्रयोग प्रसिद्ध है।
ग्रह दशा
प्राणियों के समस्त जीवनकाल के भिन्न-भिन्न अवयव भिन्न-भिन्न रूपों में प्रभावित बतलानेवाले ग्रहों की दशाओं और अंतर्दशाओं के परिणाम हैं। जीवन में कौन-सा समय सुखदायक तथा कौन-सा अरिष्टप्रद होगा, भाग्योदय कब होगा, माता, पिता, बंधु, संतति, स्त्री आदि का सुख कब कैसा रहेगा, विवाह कब होगा, कौन-सी ग्रहदशा जीवन में समृद्धि उड़ेल देगी और किस ग्रह की दशा में दर-दर की खाक छाननी पड़ेगी, सबसे बढ़कर किस समय इस संसार को सदा के लिए छोड़ देना होगा इत्यादि सभी बातों का समय, ग्रहों की दशाओं और अंतर्दशाओं से ही सूचित किया जाता है।
गणना क्रम
ग्रह दशा की गणना के लिए जन्मकालसंबंधी चंद्रमा का नक्षत्र प्रधान है। कृत्तिका से गणना करके नौ नौ नक्षत्रों में क्रमश: सूर्य, चंद्र, भौम, राहु, गुरु, शनि, बुध, केतु और शुक्र की दशाओं का भोगकाल 6,10,7,18,16 19,17,7,20 वर्षों के क्रम से 120 वर्ष माना गया है। इस प्रकार कृत्तिका से जन्मकालिक चंद्रमा के नक्षत्र तक की संख्या में 9 का भाग देकर शेष संख्या जिस ग्रह की होगी उसी की दशा जन्मकाल में मानी जाएगी तथा जन्म समय और नक्षत्र के पंचांगीय भोग काल से ग्रह की दशा के जन्म काल से पहले व्यतीत और जन्म के बाद के भोग काल का निर्णय करके भावी फलादेश को प्रस्तुत किया जाता है। यदि ग्रह कुंडली में अपने गृह या मित्र के गृह में हो अथवा उच्च का हो तो वह जिस भाव का स्वामी होगा, उसका फल उत्तम होगा तथा शत्रु के गृह में अथवा नीच राशि में उसके स्थित होने पर फल निकृष्ट होगा। अब प्रश्न उठता है कि सभी गणनाएँ तो अश्विनी नक्षत्र से आरंभ की जाती हैं। फिर ग्रहदशा की गणना कृत्तिका से क्यों की जाती है। तथ्य यह है कि हमारा ग्रहदशासंबंधी फलादेश तब से चला आता है जब हमारी नक्षत्र गणना कृत्तिका से आरंभ होती थी। महर्षि गर्ग ने वैदिककाल में दो स्वतंत्र नक्षत्र गणनाओं का उल्लेख किया है- एक कृत्तिकादि और दूसरी धनिष्ठादि। गर्ग वाक्य है कि- "तेषां सर्वेषां नक्षत्राणां कर्मसु कृत्तिका प्रथममाचचक्षते श्रविष्ठतु संख्याया: पूर्वा लग्नानाम्" अर्थात् सभी नक्षत्रों में अग्न्याधान आदि कर्मों में कृत्तिका की गणना प्रथम कही जाती है किंतु धनिष्ठा क्षितिज में लगनेवाले नक्षत्रों में प्रथम है। रहस्य यह है कि जिस समय कृत्तिका (कचपिचिया) का तारापुंज विषवद्वृत्त (Equater) में था उस समय कृत्तिकादि नक्षत्र गणना का आरंभ हुआ। जब उत्तरायण का आरंभ धनिष्ठा पर होता था धनिष्ठादि गणना का आरंभ हुआ। तैत्तिरीय ब्राह्मण में लिखा है कि "मुखं वा एतन्नक्षाणां यत्कृत्तिका एताह वै प्राच्यै दिशो न च्यवंते" अर्थात् कृत्तिका सब नक्षत्रों में प्रथम है। यह उदय काल में पूर्व दिशा से नहीं हटती। यह निश्चय है कि जो ग्रह या नक्षत्र विषुवद्वृत्त में होता है उसी का उदय पूर्व बिंदु में पृथ्वी तल पर सर्वत्र होता है। कृत्तिका की आकाशीय स्थिति के अनुसार गणना करने पर यह समय लगभग 5100 वर्ष पूर्व का सिद्ध होता है। अत: हमारे फलादेश की ग्रहदशा पद्धति इतनी प्राचीन तो है ही।
वर्षफल
हमारी जन्मकुंडली की दशा अंतर्दशाओं के क्रम से प्रभावित होकर अरब देशवासियों ने वर्षफल की एक नई प्रणाली प्रारंभ की जिसे 'ताजिक' कहते हैं। इसमें प्राणी के जन्म काल से सौर वर्ष की पूर्ति के समय का लग्न लाकर एक वर्ष के अंदर होनेवाले शुभाशुभों का विचार किया जाता है। इसमें 16 योगों की प्रधानता है जिनमें लाभ, हानि तथा शारीरिक स्थिति का विचार किया जाता है। इन 16 योगों के नाम अरबी भाषा के ही हैं संस्कृत ग्रंथों में उनके नाम उच्चारण के अनुसार कुछ परिवर्तित हो गए है यथा, इक़बाल (इक्कबाल) अशराफ (इसराफ़), इत्तसाल (इत्त्थसाल) आदि।

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हिन्दुओं की समय निर्धारण पद्धति, महत्वपूर्ण जानकारी



कलयति सर्वाणि भूतानि : अर्थात काल संपूर्ण ब्रह्मांड को, सृष्टि को खा जाता है। इस काल का सूक्ष्मतम अंश परमाणु है और महानतम अंश ब्रह्मा। जैसे आधुनिक काल के अनुसार सूक्ष्मतम अंश सेकंड है और महानतम अंश शताब्दी।

ज्योतिर्विदाभरण में अनुसार कलियुग में 6 व्यक्तियों ने संवत चलाए। यथा- युधिष्ठर, विक्रम, शालिवाहन, विजयाभिनन्दन, नागार्जुन, कल्की। इससे पहले सप्तऋषियों ने संवत चलाए थे जिनके आधार पर ही बाद के लोगों ने अपडेट किया। इसमें से सबसे ज्यादा सही विक्रम है। कालगणना में क्रमश: प्रहर, दिन-रात, पक्ष, अयन, संवत्सर, दिव्यवर्ष, मन्वन्तर, युग, कल्प और ब्रह्मा की गणना की जाती है।

चक्रीय अवधारणा के अतर्गत ही हिन्दुओं ने काल को कल्प, मन्वंतर, युग (सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग) आदि में विभाजित किया जिनका अविर्भाव बार-बार होता है, जो जाकर पुन: लौटते हैं। चक्रीय का अर्थ सिर्फ इतना ही है कि सूर्य उदय और अस्त होता है और फिर से वह उदय होता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि समय भी चक्रीय है। सिर्फ घटनाक्रम चक्रीय है। इसकी पुनरावृत्ति होती रहती है लेकिन पुनरावृत्ति में भी वह पहले जैसी नहीं होती है।

चक्रीय काल-अवधारणा के अंतर्गत आज ब्रह्मा की आयु के दूसरे खंड में, श्वेतावाराह कल्प में, वैवस्वत मन्वंर में अट्ठाईसवां कलियुग चल रहा है। इस कलियुग की समाप्ति के पश्चात चक्रीय नियम में पुन: सतयुग आएगा। हिन्दू कालगणना के अनुसार धरती पर जीवन की शुरुआत आज से लगभग 200 करोड़ वर्ष पूर्व हुई थी।

यदि दुनिया में कोई-सा वैज्ञानिक कैलेंडर या समय मापन-निर्धारण की पद्धति है तो वह है भारत के प्राचीन वैदिक ऋषियों की पद्धति। इसी पद्धति को ईरानी और यूनानियों ने अपनाया और इसे ही बाद में अरब और मिस्र के वासियों ने अपनाया। किंतु कालांतर में अन्य देशों में बदलते धर्म और संस्कृतियों के प्रचलन ने इसके स्वरूप में परिवर्तन कर दिया गया। उस काल में दुनियाभर के कैलेंडर में मार्च का महीना प्रथम महीना होता था, लेकिन उन सभी कैलेंडरों को हटाकर आजकल अंग्रेजी कैलेंडर प्रचलन में है। अंग्रेजों ने लगभग पूरी दुनिया पर राज किया। ऐसे में उन्होंने अपनी भाषा, धर्म, संस्कृति सहित ईसा के कैलेंडर को भी पूरी दुनिया पर लाद दिया।

वैदिक ऋषियों ने इस तरह का कैलेंडर या पंचांग बनाया, जो पूर्णत: वैज्ञानिक हो। उससे धरती और ब्रह्मांड का समय निर्धारण किया जा सकता हो। धरती का समय निर्माण अर्थात कि धरती पर इस वक्त कितना समय बीत चुका है और बीत रहा है और ब्रह्मांड अर्थात अन्य ग्रहों पर उनके जन्म से लेकर अब तक कितना समय हो चुका है- यह निर्धारण करने के लिए उन्होंने एक सटीक समय मापन पद्धति विकसित की थी। आश्चर्य है कि आज के वैज्ञानिक यह कहते हैं कि ऋषियों की यह समय मापन पद्धति आज के खगोल विज्ञान से मिलती-जुलती है, जबकि उन्हें कहना यह चाहिए कि ऋषियों ने हमसे हजारों वर्ष पहले ही एक वैज्ञानिक समय मापन पद्धति खोज ली थी।

ऋषियों ने इसके लिए सौरमास, चंद्रमास और नक्षत्रमास की गणना की और सभी को मिलाकर धरती का समय निर्धारण करते हुए संपूर्ण ब्रह्मांड का समय भी निर्धारण कर उसकी आयु का मान निकाला। जैसे कि मनुष्य की आयु प्राकृतिक रूप से 120 वर्ष होती है उसी तरह धरती और सूर्य की भी आयु निर्धारित है। जो जन्मा है वह मरेगा। ऐसे में वैदिक ऋषियों की समय मापन की पद्धति से हमें जहां समय का ज्ञान होता है वहीं हमें सभी जीव, जंतु, वृक्ष, मानव, ग्रह और नक्षत्रों की आयु का भी ज्ञान होता है।

ऋषियों ने सूक्ष्मतम से लेकर वृहत्तम माप, जो सामान्य दिन-रात से लेकर 8 अरब 64 करोड़ वर्ष के ब्रह्मा के दिन-रात तक की गणना की है, जो आधुनिक खगोलीय मापों के निकट है। यह गणना पृथ्वी व सूर्य की उम्र से भी अधिक है तथा ऋषियों के पास और भी लंबी गणना के माप हैं। आओ जानते हैं इस गणना का रहस्य...

युगमान- 4,32,000 वर्ष में सातों ग्रह अपने भोग और शर को छोड़कर एक जगह आते हैं। इस युति के काल को कलियुग कहा गया। दो युति को द्वापर, तीन युति को त्रेता तथा चार युति को सतयुग कहा गया। चतुर्युगी में सातों ग्रह भोग एवं शर सहित एक ही दिशा में आते हैं।

वैदिक ऋषियों के अनुसार वर्तमान सृष्टि पंच मंडल क्रम वाली है। चन्द्र मंडल, पृथ्वी मंडल, सूर्य मंडल, परमेष्ठी मंडल और स्वायम्भू मंडल। ये उत्तरोत्तर मंडल का चक्कर लगा रहे हैं।

परमाणु समय की सबसे सूक्ष्मतम इकाई है। यहीं से समय की शुरुआत मानी जा सकती है। यह इकाई अति लघु श्रेणी की है। इससे छोटी कोई इकाई नहीं। आधुनिक घड़ी का कांटा संभवत: सेकंड का सौवां या 1000वां हिस्सा भी बताने की क्षमता रखता है। धावकों की प्रतियोगिता में इस तरह की घड़ी का इस्तेमाल किया जाता है। सेकंड के जितने भी हिस्से हो सकते हैं उसका भी 100वां हिस्सा परमाणु हो सकता है।

*1 परमाणु = काल की सबसे सूक्ष्मतम अवस्था
*2 परमाणु = 1 अणु
*3 अणु = 1 त्रसरेणु
*3 त्रसरेणु = 1 त्रुटि
*10 त्रुटि = 1 प्राण
*10 प्राण = 1 वेध
*3 वेध = 1 लव या 60 रेणु
*3 लव = 1 निमेष
*1 निमेष = 1 पलक झपकने का समय
*2 निमेष = 1 विपल (60 विपल एक पल होता है)
*3 निमेष = 1 क्षण
*5 निमेष = 2 सही 1 बटा 2 त्रुटि
*2 सही 1 बटा 2 त्रुटि = 1 सेकंड या 1 लीक्षक से कुछ कम।
*20 निमेष = 10 विपल, एक प्राण या 4 सेकंड
*5 क्षण = 1 काष्ठा
*15 काष्ठा = 1 दंड, 1 लघु, 1 नाड़ी या 24 मिनट
*2 दंड = 1 मुहूर्त
*15 लघु = 1 घटी=1 नाड़ी
*1 घटी = 24 मिनट, 60 पल या एक नाड़ी
*3 मुहूर्त = 1 प्रहर
*2 घटी = 1 मुहूर्त= 48 मिनट
*1 प्रहर = 1 याम
*60 घटी = 1 अहोरात्र (दिन-रात)
*15 दिन-रात = 1 पक्ष
*2 पक्ष = 1 मास (पितरों का एक दिन-रात)
*कृष्ण पक्ष = पितरों का एक दिन और शुक्ल पक्ष = पितरों की एक रात।
*2 मास = 1 ऋतु
*3 ऋतु = 6 मास
*6 मास = 1 अयन (देवताओं का एक दिन-रात)
*2 अयन = 1 वर्ष
*उत्तरायन = देवताओं का दिन और दक्षिणायन = देवताओं की रात।
*मानवों का एक वर्ष = देवताओं का एक दिन जिसे दिव्य दिन कहते हैं।
*1 वर्ष = 1 संवत्सर=1 अब्द
*10 अब्द = 1 दशाब्द
*100 अब्द = शताब्द
*360 वर्ष = 1 दिव्य वर्ष अर्थात देवताओं का 1 वर्ष।
जब भी पंडितजी कोई संकल्प कराते हैं तो निम्नलिखित संस्कृत वाक्य सदियों से बोला जा रहा है। इसमें यदि कुछ परिवर्तन होता है तो वह बस देश, प्रदेश, संवत्सरे, मासे और तिथि का ही परिवर्तन होता रहता है। यह संस्कृत वाक्य यह दर्शाता है कि इस वक्त कितना समय बीत चुका है।

ॐ अस्य श्री विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्राहृणां द्वितीये परार्धे श्वेत वाराह कल्पे वैवस्वतमन्वंतरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे कलिसंवते या युगाब्दे जम्बु द्वीपे, ब्रह्मावर्त देशे, भारत खंडे, मालवदेशे, अमुकसंवत्सरे, अयने, ऋतौ, मासे, पक्षे, तिथे, समये यथा जातके।

* 12,000 दिव्य वर्ष = एक महायुग (चारों युगों को मिलाकर एक महायुग)
सतयुग : 4000 देवता वर्ष (सत्रह लाख अट्ठाईस हजार मानव वर्ष)
त्रेतायुग : 3000 देवता वर्ष (बारह लाख छियानवे हजार मानव वर्ष)
द्वापरयुग : 2000 देवता वर्ष (आठ लाख चौसठ हजार मानव वर्ष)
कलियुग : 1000 देवता वर्ष (चार लाख ब्तीसहजतार मानव वर्ष)

* 71 महायुग = 1 मन्वंतर (लगभग 30,84,48,000 मानव वर्ष बाद प्रलय काल)
* चौदह मन्वंतर = एक कल्प।
* एक कल्प = ब्रह्मा का एक दिन। (ब्रह्मा का एक दिन बीतने के बाद महाप्रलय होती है और फिर इतनी ही लंबी रात्रि होती है)। इस दिन और रात्रि के आकलन से उनकी आयु 100 वर्ष होती है। उनकी आधी आयु निकल चुकी है और शेष में से यह प्रथम कल्प है।
* ब्रह्मा का वर्ष यानी 31 खरब 10 अरब 40 करोड़ वर्ष। ब्रह्मा की 100 वर्ष की आयु अथवा ब्रह्मांड की आयु- 31 नील 10 अरब 40 अरब वर्ष (31,10,40,00,00,00,000 वर्ष)
मन्वंतर की अवधि : विष्णु पुराण के अनुसार मन्वंतर की अवधि 71 चतुर्युगी के बराबर होती है। इसके अलावा कुछ अतिरिक्त वर्ष भी जोड़े जाते हैं। एक मन्वंतर = 71 चतुर्युगी = 8,52,000 दिव्य वर्ष = 30,67,20,000 मानव वर्ष।

मन्वंतर काल का मान : वैदिक ऋषियों के अनुसार वर्तमान सृष्टि पंच मंडल क्रम वाली है। चन्द्र मंडल, पृथ्वी मंडल, सूर्य मंडल, परमेष्ठी मंडल और स्वायम्भू मंडल। ये उत्तरोत्तर मंडल का चक्कर लगा रहे हैं।

सूर्य मंडल के परमेष्ठी मंडल (आकाश गंगा) के केंद्र का चक्र पूरा होने पर उसे मन्वंतर काल कहा गया। इसका माप है 30,67,20,000 (तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हजार वर्ष)। एक से दूसरे मन्वंतर के बीच 1 संध्यांश सतयुग के बराबर होता है अत: संध्यांश सहित मन्वंतर का माप हुआ 30 करोड़ 84 लाख 48 हजार वर्ष। आधुनिक मान के अनुसार सूर्य 25 से 27 करोड़ वर्ष में आकाश गंगा के केंद्र का चक्र पूरा करता है।

कल्प का मान : परमेष्ठी मंडल स्वायम्भू मंडल का परिभ्रमण कर रहा है यानी आकाशगंगा अपने से ऊपर वाली आकाशगंगा का चक्कर लगा रही है। इस काल को कल्प कहा गया यानी इसकी माप है 4 अरब 32 करोड़ वर्ष (4,32,00,00,000)। इसे ब्रह्मा का 1 दिन कहा गया। जितना बड़ा दिन, उतनी बड़ी रात अत: ब्रह्मा का अहोरात्र यानी 864 करोड़ वर्ष हुआ।

इस कल्प में 6 मन्वंतर अपनी संध्याओं समेत निकल चुके, अब 7वां मन्वंतर काल चल रहा है जिसे वैवस्वत: मनु की संतानों का काल माना जाता है। 27वां चतुर्युगी बीत चुका है। वर्तमान में यह 28वें चतुर्युगी का कृतयुग बीत चुका है और यह कलियुग चल रहा है। यह कलियुग ब्रह्मा के द्वितीय परार्ध में श्वेतवराह नाम के कल्प में और वैवस्वत मनु के मन्वंतर में चल रहा है। इसका प्रथम चरण ही चल रहा है। 
30 कल्प : श्वेत, नीललोहित, वामदेव, रथनतारा, रौरव, देवा, वृत, कंद्रप, साध्य, ईशान, तमाह, सारस्वत, उडान, गरूढ़, कुर्म, नरसिंह, समान, आग्नेय, सोम, मानव, तत्पुमन, वैकुंठ, लक्ष्मी, अघोर, वराह, वैराज, गौरी, महेश्वर, पितृ।

14 मन्वंतर : स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, दक्षसावर्णि, (10) ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, देवसावर्णि तथा इन्द्रसावर्णि।

60 संवत्सर : संवत्सर को वर्ष कहते हैं: प्रत्येक वर्ष का अलग नाम होता है। कुल 60 वर्ष होते हैं तो एक चक्र पूरा हो जाता है। इनके नाम इस प्रकार हैं:-

प्रभव, विभव, शुक्ल, प्रमोद, प्रजापति, अंगिरा, श्रीमुख, भाव, युवा, धाता, ईश्वर, बहुधान्य, प्रमाथी, विक्रम, वृषप्रजा, चित्रभानु, सुभानु, तारण, पार्थिव, अव्यय, सर्वजीत, सर्वधारी, विरोधी, विकृति, खर, नंदन, विजय, जय, मन्मथ, दुर्मुख, हेमलम्बी, विलम्बी, विकारी, शार्वरी, प्लव, शुभकृत, शोभकृत, क्रोधी, विश्वावसु, पराभव, प्ल्वंग, कीलक, सौम्य, साधारण, विरोधकृत, परिधावी, प्रमादी, आनंद, राक्षस, नल, पिंगल, काल, सिद्धार्थ, रौद्रि, दुर्मति, दुन्दुभी, रूधिरोद्गारी, रक्ताक्षी, क्रोधन और अक्षय।

संदर्भ : पुराण और कल्याण का ज्योतिषतत्त्वांक

क्या करे जिससे हर दिन हो मंगलकारी

क्या करे जिससे हर दिन हो मंगलकारी ...


                              ज्योतिष में सप्ताह के सात दिनों की प्रकृति और स्वभाव बताए गए हैं। इन सात दिनों पर ग्रहों का अपना प्रभाव होता है। अगर आप इन दिनों की प्रकृति और स्वभाव के अनुसार कार्यों को करें तो जरूर आपकी किस्मत साथ देगी। निश्चित ही हर काम में सफलता मिलेगी। अगर आपके सोचे हुए काम पूरे नही होते या उनका कोई परिणाम नही मिलता तो आप उन कार्यों को पुराणों, मुहूर्त ग्रंथों और फलति ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार बताए गए वार को करें। आप जरूर सफल होंगे।
जानिए किस दिन क्या करें..

रविवार- यह सूर्य देव का वार माना गया है। इस दिन नवीन गृह प्रवेश और सरकारी कार्य करना चाहिए। सोने के आभूषण और तांबे की वस्तुओं का क्रय विक्रय करना चाहिए या इन धातुओं के आभूषण पहनना चाहिए।

सोमवार- सरकारी नौकरी वालों के लिए पद ग्रहण करने के लिए यह दिन बहुत महत्वपूर्ण है। गृह शुभारम्भ, कृषि, लेखन कार्य और दूध, घी व तरल पदार्थों का क्रय विक्रय करना इस दिन फायदेमंद हो सकता है।

मंगलवार- मंगल देव के इस दिन विवाद एवं मुकद्दमे से संबंधित कार्य करने चाहिए। शस्त्र अभ्यास, शौर्य और पराक्रम के कार्य इस दिन करने से उस कार्य में सफलता मिलती है। मेडिकल से संबंधित कार्य और अॅापरेशन इस दिन करने से सफलता मिलती है। बिजली और अग्नि से संबधित कार्य इस दिन करें तो जरूर लाभ मिलेगा। सभी प्रकार की धातुओं का क्रय विक्रय करना चाहिए।

बुधवार- इस दिन यात्रा करना, मध्यस्थता करना, दलाली, योजना बनाना आदि काम करने चाहिए। लेखन, शेयर मार्केट का काम, व्यापारिक लेखा-जोखा आदि का कार्य करना चाहिए।

गुरुवार- बृहस्पति देव के इस दिन यात्रा, धार्मिक कार्य, विद्याध्ययन और बैंक से संबंधित कार्र्य करना चाहिए। इस दिन वस्त्र आभूषण खरीदना, धारण करना और प्रशासनिक कार्य करना शुभ माना गया है।

शुक्रवार- शुक्रवार के दिन गृह प्रवेश, कलात्मक कार्य, कन्या दान, करने का महत्व है। शुक्र देव भौतिक सुखों के स्वामी है। इसलिए इस दिन सुख भोगने के साधनों का उपयोग करें। सौंदर्य प्रसाधन, सुगन्धित पदार्थ, वस्त्र, आभूषण, वाहन आदि खरीदना लाभ दायक होता है।

शनिवार- मकान बनाना, टेक्रीकल काम, गृह प्रवेश, ऑपरेशन आदि काम करने चाहिए। प्लास्टिक , लकड़ी , सीमेंट, तेल, पेट्रोल खरीदना और वाद-विवाद के लिए जाना इस दिन सफलता देने वाला होता है।

Tuesday 25 March 2014

कुंडली के हर भाव में छुपा है राज और नौ ग्रहों के बारह भाव में फल


कुंडली के हर भाव में छुपा है राज ::--

ज्योतिष में मान्य बारह राशियों के आधार पर जन्मकुंडली में बारह भावों की रचना
की गई है। प्रत्येक भाव, मनुष्य जीवन की विविध अव्यवस्थाओं, विविध घटनाओं को
दर्शाता है। आइए इनके बारे में विस्तार से जानें।

1. प्रथम भाव : यह लग्न भी कहलाता है। इस स्थान से व्यक्ति की शरीर यष्टि,
वात-पित्त-कफ प्रकृति, त्वचा का रंग, यश-अपयश, पूर्वज, सुख-दुख, आत्मविश्वास,
अहंकार, मानसिकता आदि को जाना जाता है।

2. द्वितीय भाव : इसे धन भाव भी कहते हैं। इससे व्यक्ति की आर्थिक स्थिति,
परिवार का सुख, घर की स्थिति, दाईं आँख, वाणी, जीभ, खाना-पीना, प्रारंभिक
शिक्षा, संपत्ति आदि के बारे में जाना जाता है।

3. तृतीय भाव : इसे पराक्रम का सहज भाव भी कहते हैं। इससे जातक के बल, छोटे
भाई-बहन, नौकर-चाकर, पराक्रम, धैर्य, कंठ-फेफड़े, श्रवण स्थान, कंधे-हाथ आदि
का विचार किया जाता है।

4. चतुर्थ स्थान : इसे मातृ स्थान भी कहते हैं। इससे मातृसुख, गृह सौख्य,
वाहन सौख्य, बाग-बगीचा, जमीन-जायदाद, मित्र, छाती पेट के रोग, मानसिक स्थिति
आदि का विचार किया जाता है।

5. पंचम भाव : इसे सुत भाव भी कहते हैं। इससे संतति, बच्चों से मिलने वाला
सुख, विद्या बुद्धि, उच्च शिक्षा, विनय-देशभक्ति, पाचन शक्ति, कला, रहस्य
शास्त्रों की रुचि, अचानक धन-लाभ, प्रेम संबंधों में यश, नौकरी परिवर्तन आदि
का विचार किया जाता है।

6. छठा भाव : इसे शत्रु या रोग स्थान भी कहते हैं। इससे जातक के शत्रु , रोग,
भय, तनाव, कलह, मुकदमे, मामा-मौसी का सुख, नौकर-चाकर, जननांगों के रोग आदि का
विचार किया जाता है।

7.सातवाँ भाव : विवाह सुख, शैय्या सुख, जीवनसाथी का स्वभाव, व्यापार,
पार्टनरशिप, दूर के प्रवास योग, कोर्ट कचहरी प्रकरण में यश-अपयश आदि का ज्ञान
इस भाव से होता है। इसे विवाह स्थान कहते हैं।

8 .आठवाँ भाव : इस भाव को मृत्यु स्थान कहते हैं। इससे आयु निर्धारण, दु:ख,
आर्थिक स्थिति, मानसिक क्लेश, जननांगों के विकार, अचानक आने वाले संकटों का
पता चलता है।

9 .नवाँ भाव : इसे भाग्य स्थान कहते हैं। यह भाव आध्यात्मिक प्रगति, भाग्योदय,
बुद्धिमत्ता, गुरु, परदेश गमन, ग्रंथपुस्तक लेखन, तीर्थ यात्रा, भाई की पत्नी,
दूसरा विवाह आदि के बारे में बताता है।

10. दसवाँ भाव : इसे कर्म स्थान कहते हैं। इससे पद-प्रतिष्ठा, बॉस, सामाजिक
सम्मान, कार्य क्षमता, पितृ सुख, नौकरी व्यवसाय, शासन से लाभ, घुटनों का दर्द,
सासू माँ आदि के बारे में पता चलता है।

11. ग्यारहवाँ भाव : इसे लाभ भाव कहते हैं। इससे मित्र, बहू-जँवाई,
भेंट-उपहार, लाभ, आय के तरीके, पिंडली के बारे में जाना जाता है।

12. बारहवाँ भाव : इसे व्यय स्थान भी कहते हैं। इससे कर्ज, नुकसान, परदेश गमन,
संन्यास, अनैतिक आचरण, व्यसन, गुप्त शत्रु, शैय्या सुख, आत्महत्या, जेल
यात्रा, मुकदमेबाजी का विचार किया जाता है।

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नौ ग्रहों के बारह भाव में फल

कुंडली के बारह घर में सूर्य का फल 1 : लग्न में सूर्य हो तो जातक स्वाभिमानी, क्रोधी, पित्त, वात रोगी, चंचल, प्रवासी, अस्थिर संपत्ति वाला होता है। 2. कुंडली के दूसरे भाव में सूर्य हो तो संपत्तिवान, भाग्यवान, झगडालू, नेत्र, मुख एवं दंत रोगी, स्त्री के लिए कुटुंब से झगड़ने वाला होता है। 3. तीसरे भाव में सूर्य हो तो पराक्रमी, प्रतापशाली, राजमान्य, बंधुहीन होता है। 4. चौथे भाव में सूर्य हो तो जातक चिंताग्रस्त, परम सुंदर, पितृधन नाशक, भाइयों से बैर रखने वाला, गुप्त विद्या प्रिय एवं वाहन का सुख होता है। 5. पांचवें भाव में सूर्य होने से जातक अल्प संततिवान, सदाचारी, बुद्धिमान एवं क्रोधी होता है। 6. छठे भाव में सूर्य होने से जातक शत्रुनाशक, तेजस्वी, मातृ कष्टकारक, न्यायवान होता है। 7. सातवें भाव में सूर्य होने से स्त्री क्लेश कारक, स्वाभिमानी, आत्मरत, चिंतायुक्त होता है। 8. आठवें भाव में सूर्य होने से पित्त रोगी, क्रोधी, धनी, धैर्यहीन होता है। 9. नौवें भाव में सूर्य होने से प्रतापी, व्यवसायकुशल, राजमान्य, लब्धप्रतिष्ठित, राजमंत्री, उदार एवं ऐश्वर्य संपन्न होता है। 10. दसवें भाव में सूर्य होने से स्त्री क्लेश कारक, स्वाभिमानी, आत्मरत, चिंतायुक्त होता है। 11. सूर्य ग्यारहवें भाव में हो तो जातक धनी, बलवान, सुखी, स्वाभिमानी, मितभाषी, अल्पसंततिवान होता है। 12. बारहवें भाव में सूर्य हो तो उदासीन, मस्तिष्क रोगी, नेत्र रोगी, आलसी एवं मित्र द्वेषी होता है।

कुंडली के बारह भाव में चंद्र का फल1. लग्न में चंद्रमा हो तो जातक बलवान, ऐश्वर्यशाली, सुखी, व्यवसायी, गायन-वाद्य प्रिय एवं स्थूल शरीर होता है। 2. दूसरे भाव में चंद्र हो तो मधुरभाषी, सुंदर, भोगी, परदेशवासी, सहनशील एवं शांति प्रिय होता है। 3. तीसरे भाव में चंद्र हो तो पराक्रम से धन प्राप्ति, धार्मिक, यशस्वी, प्रसन्न, आस्तिक एवं मधुरभाषी होता है। 4. चौथे भाव में हो तो दानी, मानी, सुखी, उदार, रोगरहित, विवाह के पश्चात कन्या संततिवान, सदाचारी, सट्टे से धन कमाने वाला एवं क्षमाशील होता है। 5. पांचवें भाव में चंद्र हो तो शुद्ध बुद्धि, चंचल, सदाचारी, क्षमावान तथा शौकीन होता है। 6. छठे भाव में चंद्रमा होने से कफ रोगी, नेत्र रोगी, अल्पायु, आसक्त, व्ययी होता है।7. चंद्रमा सातवें स्थान में होने से सभ्य, धैर्यवान, नेता, विचारक, प्रवासी, जलयात्रा करने वाला, अभिमानी, व्यापारी, वकील एवं स्फूर्तिवान होता है। 8. आठवें भाव में चंद्रमा होने से विकारग्रस्त, कामी, व्यापार से लाभ वाला, वाचाल, स्वाभिमानी, बंधन से दुखी होने वाला एवं ईर्ष्यालु होता है। 9. नौंवे भाव में चंद्रमा होने से जातक संतति, संपत्तिवान, धर्मात्मा, कार्यशील, प्रवास प्रिय, न्यायी, विद्वान एवं साहसी होता है। 10. दसवें भाव में चंद्रमा होने से कार्यकुशल, दयालु, निर्मल बुद्धि, व्यापारी, यशस्वी, संतोषी एवं लोकहितैषी होता है। 11. ग्यारहवें भाव में चंद्रमा होने से चंचल बुद्धि, गुणी, संतति एवं संपत्ति से युक्त, यशस्वी, दीर्घायु, परदेशप्रिय एवं राज्यकार्य में दक्ष होता है। 12. बारहवें भाव में चंद्रमा होने से नेत्र रोगी, कफ रोगी, क्रोधी, एकांत प्रिय, चिंतनशील, मृदुभाषी एवं अधिक व्यय करने वाला होता है।

कुंडली के बारह भाव में मंगल का फल1. लग्न में मंगल हो तो जातक क्रूर, साहसी, चपल, महत्वाकांक्षी एवं व्रणजन्य कष्ट से युक्त एवं व्यवसाय में हानि होती है। 2. दूसरे भाव में मंगल हो तो कटुभाषी, धनहीन, पशुपालक, धर्मप्रेमी, नेत्र एवं कर्ण रोगी होता है। 3. तीसरे भाव में मंगल हो तो जातक प्रसिद्ध शूरवीर, धैर्यवान, साहसी, भ्रातृ कष्टकारक एवं कटुभाषी होता है। 4. चौथे भाव में मंगल हो तो वाहन सुखी, संततिवान, मातृ सुखहीन, प्रवासी, अग्नि भययुक्त एवं लाभयुक्त होता है। 5. पांचवें स्थान में मंगल हो तो जातक उग्रबुद्धि, कपटी, व्यसनी, उदर रोगी, चंचल, बुद्धिमान होता है।6. छठे भाव में हो तो बलवान, धैर्यशाली, शत्रुहंता एवं अधिक व्यय करने वाला होता है। 7. सातवें भाव में मंगल हो तो स्त्री दुखी, वात रोगी, शीघ्र कोपी, कटुभाषी, धननाशक एवं ईर्ष्यालु होता है। 8. आठवें भाव में मंगल हो तो जातक व्याधिग्रस्त, व्यसनी, कठोरभाषी, उन्मत्त, नेत्र रोगी, संकोची एवं धन चिंतायुक्त होता है। 9. मंगल नौवें स्थान में हो तो द्वैषी, अभिमानी, क्रोधी, नेता, अधिकारी, ईर्ष्यालु एवं अल्प लाभ करने वाला होता है। 10. मंगल दसवें भाव में हो तो धनवान, कुलदीपक, सुखी, यशस्वी, उत्तम वाहनों का सुख पाने वाला लेकिन संततिकष्ट वाला होता है।11. ग्यारहवें भाव में मंगल हो तो जातक कटुभाषी, क्रोधी, लाभ करने वाला, साहसी, प्रवासी एवं धैर्यवान होता है। 12. बारहवें भाव में मंगल हो तो जातक नेत्र रोगी, स्त्री नाशक, उग्र, व्ययशील एवं ऋणी होता है।

कुंडली के बारह भाव में बुध का फल1. जिस जातक के लग्न में बुध होता है वह अपने पूरे जीवन को व्यवस्थित करता हुआ उन्नति की ओर अग्रसर होता है। उसकी बुद्धि श्रेष्ठ होती है। उसका शरीर स्वर्ण के समान कांतिवाला और वह प्रसन्नचित्त प्राणी होता है। ऐसा व्यक्ति दीर्घायु, गणितज्ञ, विनोदी, उदार व मितभाषी होता है। 2. दूसरे भाव में हो तो वह बुद्धिमान तथा परिश्रमी होता है। सभा आदि में भाषण द्वारा वह जनता को मंत्रमुग्ध कर सकता है। 3. तीसरे भाव में हो तब ऐसा व्यक्ति व्यापारी से मित्रता स्थापित करने वाला होता है। व्यापारादि कार्यों में उसकी बहुत रुचि होती है।4. चौथे भाव में हो तो व्यक्ति बुद्धिमान होता है। राज्य में उसकी प्रतिष्ठा तथा मित्रों से सम्मान होता है। 5. पांचवे भाव में हो तो उसे संतान सुख का अभाव रहता है। यदि होता भी है तो वृद्धावस्था में पुत्र लाभ प्राप्त होता है। 6. छठे भाव में हो तो उसका अन्य मनुष्यों के साथ विरोध रहता है। 7. सातवें भाव में हो तो वह स्त्री के लिए सुखदायक होता है। 8. आठवें भाव में हो तो उस व्यक्ति की उम्र लंबी होती है। यह देश-विदेश में भी ख्याति लाभ दिलाता है। 9. नौवें भाव में हो तो मनुष्य धार्मिक कार्यों में रुचि लेने वाला, बुद्धिमान, तीर्थ आदि करने वाला होता है। तथा घर का कुलदीपक भी होता हैं। 10. दसवें भाव में हो तो ऐसा जातक पिता द्वारा अर्जित धन प्राप्त करता है। 11. ग्यारहवें भाव में हो तो वह व्यक्ति को बहुत सारी संपत्ति का मालिक बनाता है। ऐसा व्यक्ति लेखक या कवि भी होता है। 12. बारहवें भाव में हो तो ऐसा व्यक्ति विद्वान होते हुए भी आलसी होता है।

कुंडली के बारह भाव में गुरु का फल1. जिस जातक के लग्न में गुरु (बृहस्पति) होता है। ऐसा जातक अपने गुणों से चारों ओर आदर की दृष्टि से देखा जाता है। 2. दूसरे भाव में हो तो जातक कवि होता है। उसमें राज्य संचालन करने की शक्ति हो‍ती है। 3. तीसरे भाव में हो तो वह जातक नीच स्वभाव का बना देता है। साथ ही उसे सहोदर भ्राताओं का सुख भी प्राप्त होता है। 4. चौथे भाव में हो तो व्यक्ति लेखक, प्रवासी, योगी, आस्तिक, कामी, पर्यटनशील तथा विदेश प्रिय तथा महिलाओं के पीछे-पीछे घूमने वाला होता है। 5. पांचवे भाव में हो तो ऐसा जातक विलासी तथा आराम प्रिय होता है। 6. छठे भाव में हो तो ऐसा जातक सदा रोगी रहता है। मुकदमें आदि में जीत हासिल करता है। तथा अपने शत्रुओं को मुंह के बल गिराने की क्षमता रखता है। 7. सातवें भाव में हो तो बुद्धि श्रेष्ठ होती है। ऐसा व्यक्ति भाग्यवान, नम्र, धैर्यवान होता है। 8. आठवें भाव में हो तो दीर्घायु होता है तथा ऐसा जातक अधिक समय तक पिता के घर में नहीं रहता है। 9. नौवें भाव में हो तो सुंदर मकान का निर्माण करवाता है। ऐसा जातक भाई-बंधुओं से स्नेह रखने वाला होता है तथा राज्य का प्रिय होता है। 10. दसवें भाव में हो तो जातक को भूमिपति एवं भवन प्रेमी बना देता है। ऐसे व्यक्ति चित्रकला में निपुण होते है। 11. ग्यारहवें भाव में हो तो जातक ऐश्वर्यवान, पिता के धन को बढ़ाने वाला, व्यापार में दक्षता लिए होता है। 12. बारहवें भाव में हो तो ऐसा जातक आलसी, कम खर्च करने वाला, दुष्ट स्वभाव वाला होता है। लोभ‍ी-लालची भी होता है।

कुंडली के बारह भाव में शुक्र का फल1. लग्न में शुक्र हो तो जातक दीर्घायु सुंदर, ऐश्वर्यवान, मधुर भाषी, भोगी, विलासी, प्रवासी और विद्वान होता है। 2. दूसरे भाव शुक्र हो तो धनवान, यशस्वी, साहसी, कवि एवं भाग्यवान होता है। 3. तीसरे भाव में शुक्र हो तो धनी, कृपण, आलसी, चित्रकार, पराक्रमी, विद्वान, भाग्यवान एवं पर्यटनशील होता है। 4. चौथे भाव में शुक्र हो तो जातक बलवान, परोपकारी, आस्तिक, सुखी, भोगी, पुत्रवान एवं दीर्घायु होता है। 5. पांचवें भाव में शुक्र हो तो सद्गुणी, न्यायप्रिय, आस्तिक, दानी, प्रतिभाशाली, वक्ता एवं व्यवसायी होता है। 6. छठे भाव में शुक्र हो तो जातक स्त्री सुखहीन, बहुमित्रवान, दुराचारी, वैभवहीन एवं मितव्ययी होता है। 7. सातवें भाव में शुक्र हो तो स्त्री से सुखी, उदार, लोकप्रिय, धनिक, विवाह के बाद भाग्योदयी, अल्पव्याभिचारी एवं विलासी होता है। 8. आठवें भाव में शुक्र हो तो निर्दयी, रोगी, क्रोधी, ज्योतिषी, मनस्वी, पर्यटनशील एवं परस्त्रीरत होता है। 9. नौवें भाव में शुक्र हो तो आस्तिक, गृहसुखी, प्रेमी, दयालु, तीर्थस्थानों की यात्रा करने वाला, राजप्रिय एवं धर्मात्मा होता है। 10. दसवें भाव में शुक्र हो तो विलासी, ऐश्वर्यवान, न्यायवान, धार्मिक, गुणवान एवं दयालु होता है। 11. ग्यारहवें भाव में शुक्र हो तो जातक विलासी, वाहनसुखी, स्थिर लक्ष्मीवान, परोपकारी, धनवान, कामी एवं पुत्रवान होता है। 12. बारहवें भाव में शुक्र हो तो न्यायशील, आलसी, पतित, परस्त्रीरत, धनवान एवं मितव्ययी होता है।

कुंडली के बारह भाव में शनि का फल1. लग्न में शनि मकर तथा तुला का हो तो जातक धनाढ्य, सुखी और अन्य राशियों का हो तो दरिद्रवान होता है।2. दूसरे भाव में हो तो कटुभाषी और कुंभ या तुला का शनि हो तो धनी, कुटुंब तथा भ्रातृवियोगी, लाभवान होता है। 3. तीसरे भाव में हो तो निरोगी, योगी, विद्वान, चतुर, विवेकी, शत्रुहंता होता है। 4. चौथे भाव में हो तो बलहीन, अपयशी, शीघ्रकोपी, धूर्त, भाग्यवान होता है। 5. पांचवें भाव में हो तो वात रोगी, भ्रमणशील, विद्वान, उदासीन, संतानयुक्त एवं चंचल होता है। 6. छठे भाव में शनि हो तो शत्रुहंता, कवि, भोगी, कंठ व श्वांस रोगी, जातिविरोधी होता है। 7. सातवें भाव में हो तो क्रोधी, धनहीन, सुखहीन, भ्रमणशील, स्त्रीभक्त, विलासी एवं कामी होता है।8. आठवें भाव में हो तो कपटी, वाचाल, डरपोक, धूर्त एवं उदार प्रवृत्ति का होता है। 9. नौवें भाव में हो तो प्रवासी, धर्मात्मा, साहसी, भ्रातृहीन एवं शत्रुनाशक होता है। 10. दसवें भाव में हो तो नेता, न्यायी, विद्वान, ज्योतिषी, अधिकारी, महत्वाकांक्षी एवं धनवान होता है। 11. ग्यारहवें भाव में हो तो दीर्घायु, क्रोधी, चंचल, शिल्पी, सुखी, योगी, पुत्रहीन एवं व्यवसायी होता है।12. बारहवें भाव में शनि हो तो जातक व्यसनी, दुष्ट, कटुभाषी, अविश्वासी, मातृ कष्टदायक, अल्पायु एवं आलसी होता है

कुंडली के बारह भाव में राहु का फल1. लग्न में राहु हो तो जातक दुष्ट, मस्तिष्क रोगी, स्वार्थी, राजद्वेषी, कामी एवं अल्पसंतति वाला होता है। 2. दूसरे भाव में राहु हो तो परदेशगामी, अल्पसंतति, अल्प धनवान होता है। 3. तीसरे भाव में राहु हो तो बलिष्ठ, विवेकयुक्त, प्रवासी, विद्वान एवं व्यवसायी होता है। 4. चौथे भाव में हो तो असंतोषी, दुखी, मातृ क्लेशयुक्त, क्रूर, कपटी एवं व्यवसायी होता है। 5. पांचवें भाव में हो तो उदर रोगी, मतिमंद, धनहीन, भाग्यवान एवं शास्त्र प्रिय होता है। 6. छठे भाव में विधर्मियों द्वारा लाभ, निरोग, शत्रुहंता, कमर दर्द पीड़ित, अरिष्ट निवारक एवं पराक्रमी होता है। 7. सातवें भाव में हो तो स्त्री नाशक, व्यापार में हानिदायक, भ्रमणशील, वातरोग जनक, लोभी एवं दुराचारी होता है। 8. आठवें भाव में राहु हो तो पुष्टदेही, क्रोधी, व्यर्थ भाषी, उदर रोगी एवं कामी होता है। 9. नौवें भाव में राहु हो तो प्रवासी, वात रोगी, व्यर्थ परिश्रमी, तीर्थाटनशील, भाग्यहीन एवं दुष्ट बुद्धि होता है। 10. दसवें भाव में राहु हो तो आलसी, वाचाल, मितव्ययी, संततिक्लेशी तथा चंद्रमा से युत हो तो राजयोग कारक होता है। 11. ग्यारहवें भाव में राहु हो तो मंदमति, लाभहीन, परिश्रमी, अल्प संततियुक्त, अरिष्ट नाशक एवं सफल कार्य करने वाला होता है। 12. बारहवें भाव में राहु हो तो विवेकहीन, मतिमंद, मूर्ख, परिश्रमी, सेवक, व्ययी, चिंतनशील एवं कामी होता है।

कुंडली के बारह भाव में केतु का फल1. लग्न में केतु हो तो जातक चंचल, भीरू, दुराचारी तथा वृश्चिक राशि में हो तो सुखकारक, धनी एवं परिश्रमी होता है।2. दूसरे भाव में हो तो राजभीरू, विरोधी होता है। 3. तीसरे भाव में केतु हो तो चंचल, वात रोगी, व्यर्थवादी होता है। 4. चौथे भाव में हो तो चंचल, वाचाल, निरुत्साही होता है। 5. पांचवें भाव में हो तो कुबुद्धि एवं वात रोगी होता है। 6. छठे भाव में हो तो वात विकारी, झगड़ालु, मितव्ययी होता है। 7. सातवें भाव में हो तो मतिमंद, शत्रुभीरू एवं सुखहीन होता है। 8. आठवें भाव में हो तो दुर्बुद्धि, तेजहीन, स्त्री द्वैषी एवं चालाक होता है। 9. नौवें भाव में हो तो सुखभिलाषी, अपयशी होता है। 10. दसवें भाव में हो तो पितृ द्वैषी, भाग्यहीन होता है।11. इस स्थान में केतु हर प्रकार का लाभ देता है। जातक भाग्यवान, विद्वान, उत्तम गुणों वाला, तेजस्वी एवं उदर रोग से पीड़‍ित रहता है। 12. इस भाव में केतु हो तो उच्च पद वाला, शत्रु पर विजय पाने वाला, बुद्धिमान, धोखा देने वाला तथा शक्की मिजाज होता है।--: नोट यह ग्रहों का साधारण फल है विशेष के लिए ग्रहों के बलाबल और लग्न के अनुसार फलादेश करना चाहिए


By- Sanjeev Agarwal & Bhaskaranand Ji

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पुजा - पाठ कैसे करे, आपके इष्ट देव कौन हैं, तिथि अनुसार आहार-विहार एवं आचार संहिता

पुजा - पाठ कैसे करे ?

1- पुजा घर ईशान कोण मे हो …॥
2- पुजा करने वाले का मुख उत्तर या पुर्व दिशा मे हो ।
3- गणेश, कुबेर और दुर्गा का मुख पश्चिम दिशा मे और हनुमान जी का नैॠत्य कोण मे हो ।
4- शयनकक्ष मे पुजा घर न हो, अगर स्थानाभाव हो तो पुजा घर मे पर्दा लगा ले।
5- शयनकक्ष मे उत्तर और पुर्व दिशा मे पुजा घर हो ।
6- उग्र और तामसी शक्तियो कि मुर्ति का मुख पश्चिम या दक्षिण दिशा मे हो ।
7- सोते समय व्यक्ति का सिर पुर्व दिशा मे हो, ताकि सोते समय पैर भगवान हि तरफ़ न हो।
8- पुजा घर के आस पास या उपर- निचे शौचालय न बनाये ।
9- घर की सीढीयो के नीचे पुजा घर न हो ।
10- पुजा घर मे 1 से 12 अंगुल तक की मुर्ति का पूजन करे।
11- मिट्टी की बनी मुर्ति किसी भी देवता की हो 3 दिन से अधिक नही रखनी चाहिये। इससे घर मे दरिद्रता, मारपीट, झगडा,रोग, व्याधि आती है।
12- घर मे चल मुर्ति की स्थापना न करे।
13- चल हो या अचल मुर्ति मे प्राणप्रतिष्ठा अवश्य होनी चाहीये।
14- मुर्ति के निकट अधिक प्रकाश न हो ।
15- बाहरी व्यक्ति को मुर्ति के पास नही जाने देना चाहीये। इससे मुर्ति की उर्जा समाप्त होती है।
16- शक्ति की मुर्ति की पुजा रात्री 9 से 12 के भीतर और देव मुर्तियो की पुजा का समय प्रात: 4 से 6 के बीच होना चाहीये।
17- किसी भी देवी या देवता की मुर्ति दिवार से थोडी हटाकर रखनी चाहिये। और उस पर परछाई नही पडनी चाहीये।
18- गणेश जी के दाहिने और विष्णु जी के बायें लक्ष्मी जी का स्थापना करनी चाहीये।
19- धन ऐश्वर्य और शत्रु नाश के लिये चांदी के गणेश लक्ष्मी की स्थापना करनी चाहीये।
20- पुजा के कमरे के दरवाजे पर दहलीज होनी चाहीये।
21- द्वार का दरवाजा दो पल्लों का होना चाहीये।
22- पुजा के समय जलाये जानावाला दिपक यदि भूमी पर रखना हो तो उसके नीचे चावल अवश्य रखे, वर्ना घर मे चोरी हो सकती है॥
23- घी का दिपक देवता के दाहिने और तेल का दिपक बाये जलाना चाहीये॥
24- पुजा घर की दिवारो का रंग पीले या सफ़ेद रंग का हो ।
25- पुजा घर के अग्निकोण मे दिप अवश्य जलाना चाहीये।
26- हवनकुण्ड और अगरबत्ती भी अग्निकोण मे रखे।
27- देवताओ को '' तांबा '' धातु प्रिय है अत: पुजन मे तांबे की धातु के बर्तनो का ही प्रयोग करे तो उत्तम्।
28 - पुजा करते समय दिपक का स्पर्श हो जाये तो हाथ धो लेना चाहिये, अन्यथा दोष लगेगा ।
27- शिवलिंग पर चढे फ़ल,फ़ुल, नैवेद्य आदि का उपयोग न करे, उसे विसर्जित कर दे।
28- गणेश जी को तुलसी न चढायेअ ।
29- विष्णु मंदिर की 4 बार, शिव जी की आधी ,देवी की 1, सुर्य की 7 और गणेश जी की 3 परिक्रमा करनी चाहीये।
30- कन्या पुजन मे 1 वर्ष से कम और 10 वर्ष से अधिक की आयु की कन्या न हो ॥
31- प्रत्येक गृहस्थ को घर मे तुलसी का पौधा अवश्य रखना चाहीये।
32- सांयकाल मे तुलसी के नीचे दिप जलाकर 5 बार परिक्रमा करनी चाहीये।
33- घर मे मुख्य रुप से 1 ही पुजा घर हो। छोटे छोटे कई पुजाघर हो तो इससे घर के सदस्य अशान्त रहते है।
34- पुजाघर मे संत महात्मा के चित्र भी होने चाहीये ॥

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आपके इष्ट देव कौन हैं ?

शास्त्रों की मान्यतानुसार अपने इष्ट देव की आराधना करने से मनोवांछित फल प्राप्त होते हैं। आपके आराघ्य इष्ट देव कौन से होंगे इसे आप अपनी जन्म तारीख, जन्मदिन, बोलते नाम की राशि या अपनी जन्म कुंडली की लग्न राशि के अनुसार जान सकते हैं।

जन्म माह : जिन्हें केवल जन्म का माह ज्ञात है, उनके लिए इष्ट देव इस प्रकार होंगे-

-जिनका जन्म जनवरी या नवंबर माह में हुआ हो वे शिव या गणेश की पूजा करें।
-फरवरी में जन्मे शिव की उपासना करें।
-मार्च व दिसंबर में जन्मे व्यक्ति विष्णु की साधना करें।
-अप्रेल, सितंबर, अक्टूबर में जन्मे व्यक्ति गणेशजी की पूजा करें।
-मई व जून माह में जन्मे व्यक्ति मां भगवती की पूजा करें।
-जुलाई माह में जन्मे व्यक्ति विष्णु व गणेश का घ्यान करें।

जन्म वार से : जिनको वार का पता हो, परंतु समय का पता न हो, तो वार के अनुसार इष्ट देव इस प्रकार होंगे-
रविवार- विष्णु।
सोमवार- शिवजी।
मंगलवार- हनुमानजी
बुधवार- गणेशजी।
गुरूवार- शिवजी
शुक्रवार- देवी।
शनिवार- भैरवजी।

राशि के आधार पर : पंचम स्थान में स्थित राशि के आधार पर आपके इष्ट देव इस प्रकार होंगे-

मेष: सूर्य या विष्णुजी की आराधना करें।
वृष: गणेशजी।
मिथुन: सरस्वती, तारा, लक्ष्मी।
कर्क: हनुमानजी।
सिंह: शिवजी।
कन्या: भैरव, हनुमानजी, काली।
तुला: भैरव, हनुमानजी, काली।
वृश्चिक: शिवजी।
धनु: हनुमानजी।
मकर: सरस्वती, तारा, लक्ष्मी।
कुंभ: गणेशजी।
मीन: दुर्गा, राधा, सीता या कोई देवी।

जन्म कुंडली से : जिनको जन्म समय ज्ञात हो उनके लिए जन्म कुंडली के पंचम स्थान से पूर्व जन्म के संचित कर्म, ज्ञान, बुद्धि, शिक्षा, धर्म व इष्ट का बोध होता है। अरूण संहिता के अनुसार व्यक्ति के पूर्व जन्म में किए गए कर्म के आधार पर ग्रह या देवता भाव विशेष में स्थित होकर अपना शुभाशुभ फल देते हैं।

ग्रह के आधार पर इष्ट: पंचम स्थान में स्थित ग्रहों या ग्रह की दृष्टि के आधार पर आपके इष्ट देव।

सूर्य: विष्णु।
चंद्रमा- राधा, पार्वती, शिव, दुर्गा।
मंगल- हनुमानजी, कार्तिकेय।
बुध- गणेश, विष्णु।
गुरू- शिव।
शुक्र- लक्ष्मी, तारा, सरस्वती।
शनि- भैरव, काली।


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     तिथि अनुसार आहार-विहार एवं आचार संहिता 

प्रतिपदा को कूष्मांड (कुम्हड़ा, पेठा) न खायें, क्योंकि यह धन का नाश करने वाला है।
द्विताया को बृहती (छोटा बैंगन या कटेहरी) खाना निषिद्ध है।

तृतिया को परवल खाने से शत्रुओं की वृद्धि होती है।
चतुर्थी को मूली खाने से धन का नाश होता है।

पंचमी को बेल खाने से कलंक लगता है।
षष्ठी को नीम की पत्ती, फल या दातुन मुँह में डालने से नीच योनियों की प्राप्ति होती है।

सप्तमी को ताड़ का फल खाने से रोग होते हैं तथा शरीर का नाश होता है।

अष्टमी को नारियल का फल खाने से बुद्धि का नाश होता है।
नवमी को लौकी गोमांस के समान त्याज्य है।

एकादशी को शिम्बी(सेम) खाने से, द्वादशी को पूतिका(पोई) खाने से अथवा त्रयोदशी को बैंगन खाने से पुत्र का नाश होता है।

अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति, चतुर्दशी और अष्टमी तिथि, रविवार, श्राद्ध और व्रत के दिन स्त्री-सहवास तथा तिल का तेल, लाल रंग का साग व काँसे के पात्र में भोजन करना निषिद्ध है।

रविवार के दिन अदरक भी नहीं खाना चाहिए।
कार्तिक मास में बैंगन और माघ मास में मूली का त्याग कर देना चाहिए।
सूर्यास्त के बाद कोई भी तिलयुक्त पदार्थ नहीं खाना चाहिए।

लक्ष्मी की इच्छा रखने वाले को रात में दही और सत्तू नहीं खाना चाहिए। यह नरक की प्राप्ति कराने वाला है।

बायें हाथ से लाया गया अथवा परोसा गया अन्न, बासी भात, शराब मिला हुआ, जूठा और घरवालों को न देकर अपने लिए बचाया हुआ अन्न खाने योग्य नहीं है।

जो लड़ाई-झगड़ा करते हुए तैयार किया गया हो, जिसको किसी ने लाँघ दिया हो, जिस पर रजस्वला स्त्री की दृष्टि पड़ गयी हो, जिसमें बाल या कीड़े पड़ गये हों, जिस पर कुत्ते की दृष्टि पड़ गयी हो तथा जो रोकर तिरस्कारपूर्वक दिया गया हो, वह अन्न राक्षसों का भाग है।

गाय, भैंस और बकरी के दूध के सिवाय अन्य पशुओं के दूध का त्याग करना चाहिए। इनके भी बयाने के बाद दस दिन तक का दूध काम में नहीं लेना चाहिए।

ब्राह्मणों को भैंस का दूध, घी और मक्खन नहीं खाना चाहिए।
लक्ष्मी चाहने वाला मनुष्य भोजन और दूध को बिना ढके नहीं छोड़े।

जूठे हाथ से मस्तक का स्पर्श न करे क्योंकि समस्त प्राण मस्तक के अधीन हैं।
बैठना, भोजन करना, सोना, गुरुजनों का अभिवादन करना और (अन्य श्रेष्ठ पुरुषों को) प्रणाम करना – ये सब कार्य जूते पहन कर न करें।

जो मैले वस्त्र धारण करता है, दाँतों को स्वच्छ नहीं रखता, अधिक भोजन करता है, कठोर वचन बोलता है और सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सोता है, वह यदि साक्षात् भगवान विष्णु भी हो उसे भी लक्ष्मी छोड़ देती है।

उगते हुए सूर्य की किरणें, चिता का धुआँ, वृद्धा स्त्री, झाडू की धूल और पूरी तरह न जमा हुआ दही – इनका सेवन व कटे हुए आसन का उपयोग दीर्घायु चाहने वाले पुरुष को नहीं करना चाहिए।

अग्निशाला, गौशाला, देवता और ब्राह्मण के समीप तथा जप, स्वाध्याय और भोजन व जल ग्रहण करते समय जूते उतार देने चाहिए।
सोना, जागना, लेटना, बैठना, खड़े रहना, घूमना, दौड़ना, कूदना, लाँघना, तैरना, विवाद करना, हँसना, बोलना, मैथुन और व्यायाम – इन्हें अधिक मात्रा में नहीं करना चाहिए।

दोनों संध्या, जप, भोजन, दंतधावन, पितृकार्य, देवकार्य, मल-मूत्र का त्याग, गुरु के समीप, दान तथा यज्ञ – इन अवसरों पर जो मौन रहता है, वह स्वर्ग में जाता है।

गर्भहत्या करने वाले के देखे हुए, रजस्वला स्त्री से छुए हुए, पक्षी से खाये हुए और कुत्ते से छुए हुए अन्न को नहीं खाना चाहिए।

By-Subhash Malhotra, Astro Vijay & Gopal Raju   

Wednesday 19 March 2014

नौ ग्रहों के बारह भाव में फल

नौ ग्रहों के बारह भाव में फल

कुंडली के बारह घर में सूर्य का फल 1 :
 लग्न में सूर्य हो तो जातक स्वाभिमानी, क्रोधी, पित्त, वात रोगी, चंचल, प्रवासी, अस्थिर संपत्ति वाला होता है। 2. कुंडली के दूसरे भाव में सूर्य हो तो संपत्तिवान, भाग्यवान, झगडालू, नेत्र, मुख एवं दंत रोगी, स्त्री के लिए कुटुंब से झगड़ने वाला होता है। 3. तीसरे भाव में सूर्य हो तो पराक्रमी, प्रतापशाली, राजमान्य, बंधुहीन होता है। 4. चौथे भाव में सूर्य हो तो जातक चिंताग्रस्त, परम सुंदर, पितृधन नाशक, भाइयों से बैर रखने वाला, गुप्त विद्या प्रिय एवं वाहन का सुख होता है। 5. पांचवें भाव में सूर्य होने से जातक अल्प संततिवान, सदाचारी, बुद्धिमान एवं क्रोधी होता है। 6. छठे भाव में सूर्य होने से जातक शत्रुनाशक, तेजस्वी, मातृ कष्टकारक, न्यायवान होता है। 7. सातवें भाव में सूर्य होने से स्त्री क्लेश कारक, स्वाभिमानी, आत्मरत, चिंतायुक्त होता है। 8. आठवें भाव में सूर्य होने से पित्त रोगी, क्रोधी, धनी, धैर्यहीन होता है। 9. नौवें भाव में सूर्य होने से प्रतापी, व्यवसायकुशल, राजमान्य, लब्धप्रतिष्ठित, राजमंत्री, उदार एवं ऐश्वर्य संपन्न होता है। 10. दसवें भाव में सूर्य होने से स्त्री क्लेश कारक, स्वाभिमानी, आत्मरत, चिंतायुक्त होता है। 11. सूर्य ग्यारहवें भाव में हो तो जातक धनी, बलवान, सुखी, स्वाभिमानी, मितभाषी, अल्पसंततिवान होता है। 12. बारहवें भाव में सूर्य हो तो उदासीन, मस्तिष्क रोगी, नेत्र रोगी, आलसी एवं मित्र द्वेषी होता है।

कुंडली के बारह भाव में चंद्र का फल1.
 लग्न में चंद्रमा हो तो जातक बलवान, ऐश्वर्यशाली, सुखी, व्यवसायी, गायन-वाद्य प्रिय एवं स्थूल शरीर होता है। 2. दूसरे भाव में चंद्र हो तो मधुरभाषी, सुंदर, भोगी, परदेशवासी, सहनशील एवं शांति प्रिय होता है। 3. तीसरे भाव में चंद्र हो तो पराक्रम से धन प्राप्ति, धार्मिक, यशस्वी, प्रसन्न, आस्तिक एवं मधुरभाषी होता है। 4. चौथे भाव में हो तो दानी, मानी, सुखी, उदार, रोगरहित, विवाह के पश्चात कन्या संततिवान, सदाचारी, सट्टे से धन कमाने वाला एवं क्षमाशील होता है। 5. पांचवें भाव में चंद्र हो तो शुद्ध बुद्धि, चंचल, सदाचारी, क्षमावान तथा शौकीन होता है। 6. छठे भाव में चंद्रमा होने से कफ रोगी, नेत्र रोगी, अल्पायु, आसक्त, व्ययी होता है।7. चंद्रमा सातवें स्थान में होने से सभ्य, धैर्यवान, नेता, विचारक, प्रवासी, जलयात्रा करने वाला, अभिमानी, व्यापारी, वकील एवं स्फूर्तिवान होता है। 8. आठवें भाव में चंद्रमा होने से विकारग्रस्त, कामी, व्यापार से लाभ वाला, वाचाल, स्वाभिमानी, बंधन से दुखी होने वाला एवं ईर्ष्यालु होता है। 9. नौंवे भाव में चंद्रमा होने से जातक संतति, संपत्तिवान, धर्मात्मा, कार्यशील, प्रवास प्रिय, न्यायी, विद्वान एवं साहसी होता है। 10. दसवें भाव में चंद्रमा होने से कार्यकुशल, दयालु, निर्मल बुद्धि, व्यापारी, यशस्वी, संतोषी एवं लोकहितैषी होता है। 11. ग्यारहवें भाव में चंद्रमा होने से चंचल बुद्धि, गुणी, संतति एवं संपत्ति से युक्त, यशस्वी, दीर्घायु, परदेशप्रिय एवं राज्यकार्य में दक्ष होता है। 12. बारहवें भाव में चंद्रमा होने से नेत्र रोगी, कफ रोगी, क्रोधी, एकांत प्रिय, चिंतनशील, मृदुभाषी एवं अधिक व्यय करने वाला होता है।

कुंडली के बारह भाव में मंगल का फल1.
 लग्न में मंगल हो तो जातक क्रूर, साहसी, चपल, महत्वाकांक्षी एवं व्रणजन्य कष्ट से युक्त एवं व्यवसाय में हानि होती है। 2. दूसरे भाव में मंगल हो तो कटुभाषी, धनहीन, पशुपालक, धर्मप्रेमी, नेत्र एवं कर्ण रोगी होता है। 3. तीसरे भाव में मंगल हो तो जातक प्रसिद्ध शूरवीर, धैर्यवान, साहसी, भ्रातृ कष्टकारक एवं कटुभाषी होता है। 4. चौथे भाव में मंगल हो तो वाहन सुखी, संततिवान, मातृ सुखहीन, प्रवासी, अग्नि भययुक्त एवं लाभयुक्त होता है। 5. पांचवें स्थान में मंगल हो तो जातक उग्रबुद्धि, कपटी, व्यसनी, उदर रोगी, चंचल, बुद्धिमान होता है।6. छठे भाव में हो तो बलवान, धैर्यशाली, शत्रुहंता एवं अधिक व्यय करने वाला होता है। 7. सातवें भाव में मंगल हो तो स्त्री दुखी, वात रोगी, शीघ्र कोपी, कटुभाषी, धननाशक एवं ईर्ष्यालु होता है। 8. आठवें भाव में मंगल हो तो जातक व्याधिग्रस्त, व्यसनी, कठोरभाषी, उन्मत्त, नेत्र रोगी, संकोची एवं धन चिंतायुक्त होता है। 9. मंगल नौवें स्थान में हो तो द्वैषी, अभिमानी, क्रोधी, नेता, अधिकारी, ईर्ष्यालु एवं अल्प लाभ करने वाला होता है। 10. मंगल दसवें भाव में हो तो धनवान, कुलदीपक, सुखी, यशस्वी, उत्तम वाहनों का सुख पाने वाला लेकिन संततिकष्ट वाला होता है।11. ग्यारहवें भाव में मंगल हो तो जातक कटुभाषी, क्रोधी, लाभ करने वाला, साहसी, प्रवासी एवं धैर्यवान होता है। 12. बारहवें भाव में मंगल हो तो जातक नेत्र रोगी, स्त्री नाशक, उग्र, व्ययशील एवं ऋणी होता है।

कुंडली के बारह भाव में बुध का फल1.
 जिस जातक के लग्न में बुध होता है वह अपने पूरे जीवन को व्यवस्थित करता हुआ उन्नति की ओर अग्रसर होता है। उसकी बुद्धि श्रेष्ठ होती है। उसका शरीर स्वर्ण के समान कांतिवाला और वह प्रसन्नचित्त प्राणी होता है। ऐसा व्यक्ति दीर्घायु, गणितज्ञ, विनोदी, उदार व मितभाषी होता है। 2. दूसरे भाव में हो तो वह बुद्धिमान तथा परिश्रमी होता है। सभा आदि में भाषण द्वारा वह जनता को मंत्रमुग्ध कर सकता है। 3. तीसरे भाव में हो तब ऐसा व्यक्ति व्यापारी से मित्रता स्थापित करने वाला होता है। व्यापारादि कार्यों में उसकी बहुत रुचि होती है।4. चौथे भाव में हो तो व्यक्ति बुद्धिमान होता है। राज्य में उसकी प्रतिष्ठा तथा मित्रों से सम्मान होता है। 5. पांचवे भाव में हो तो उसे संतान सुख का अभाव रहता है। यदि होता भी है तो वृद्धावस्था में पुत्र लाभ प्राप्त होता है। 6. छठे भाव में हो तो उसका अन्य मनुष्यों के साथ विरोध रहता है। 7. सातवें भाव में हो तो वह स्त्री के लिए सुखदायक होता है। 8. आठवें भाव में हो तो उस व्यक्ति की उम्र लंबी होती है। यह देश-विदेश में भी ख्याति लाभ दिलाता है। 9. नौवें भाव में हो तो मनुष्य धार्मिक कार्यों में रुचि लेने वाला, बुद्धिमान, तीर्थ आदि करने वाला होता है। तथा घर का कुलदीपक भी होता हैं। 10. दसवें भाव में हो तो ऐसा जातक पिता द्वारा अर्जित धन प्राप्त करता है। 11. ग्यारहवें भाव में हो तो वह व्यक्ति को बहुत सारी संपत्ति का मालिक बनाता है। ऐसा व्यक्ति लेखक या कवि भी होता है। 12. बारहवें भाव में हो तो ऐसा व्यक्ति विद्वान होते हुए भी आलसी होता है।

कुंडली के बारह भाव में गुरु का फल1.
 जिस जातक के लग्न में गुरु (बृहस्पति) होता है। ऐसा जातक अपने गुणों से चारों ओर आदर की दृष्टि से देखा जाता है। 2. दूसरे भाव में हो तो जातक कवि होता है। उसमें राज्य संचालन करने की शक्ति हो‍ती है। 3. तीसरे भाव में हो तो वह जातक नीच स्वभाव का बना देता है। साथ ही उसे सहोदर भ्राताओं का सुख भी प्राप्त होता है। 4. चौथे भाव में हो तो व्यक्ति लेखक, प्रवासी, योगी, आस्तिक, कामी, पर्यटनशील तथा विदेश प्रिय तथा महिलाओं के पीछे-पीछे घूमने वाला होता है। 5. पांचवे भाव में हो तो ऐसा जातक विलासी तथा आराम प्रिय होता है। 6. छठे भाव में हो तो ऐसा जातक सदा रोगी रहता है। मुकदमें आदि में जीत हासिल करता है। तथा अपने शत्रुओं को मुंह के बल गिराने की क्षमता रखता है। 7. सातवें भाव में हो तो बुद्धि श्रेष्ठ होती है। ऐसा व्यक्ति भाग्यवान, नम्र, धैर्यवान होता है। 8. आठवें भाव में हो तो दीर्घायु होता है तथा ऐसा जातक अधिक समय तक पिता के घर में नहीं रहता है। 9. नौवें भाव में हो तो सुंदर मकान का निर्माण करवाता है। ऐसा जातक भाई-बंधुओं से स्नेह रखने वाला होता है तथा राज्य का प्रिय होता है। 10. दसवें भाव में हो तो जातक को भूमिपति एवं भवन प्रेमी बना देता है। ऐसे व्यक्ति चित्रकला में निपुण होते है। 11. ग्यारहवें भाव में हो तो जातक ऐश्वर्यवान, पिता के धन को बढ़ाने वाला, व्यापार में दक्षता लिए होता है। 12. बारहवें भाव में हो तो ऐसा जातक आलसी, कम खर्च करने वाला, दुष्ट स्वभाव वाला होता है। लोभ‍ी-लालची भी होता है।

कुंडली के बारह भाव में शुक्र का फल1.
 लग्न में शुक्र हो तो जातक दीर्घायु सुंदर, ऐश्वर्यवान, मधुर भाषी, भोगी, विलासी, प्रवासी और विद्वान होता है। 2. दूसरे भाव शुक्र हो तो धनवान, यशस्वी, साहसी, कवि एवं भाग्यवान होता है। 3. तीसरे भाव में शुक्र हो तो धनी, कृपण, आलसी, चित्रकार, पराक्रमी, विद्वान, भाग्यवान एवं पर्यटनशील होता है। 4. चौथे भाव में शुक्र हो तो जातक बलवान, परोपकारी, आस्तिक, सुखी, भोगी, पुत्रवान एवं दीर्घायु होता है। 5. पांचवें भाव में शुक्र हो तो सद्गुणी, न्यायप्रिय, आस्तिक, दानी, प्रतिभाशाली, वक्ता एवं व्यवसायी होता है। 6. छठे भाव में शुक्र हो तो जातक स्त्री सुखहीन, बहुमित्रवान, दुराचारी, वैभवहीन एवं मितव्ययी होता है। 7. सातवें भाव में शुक्र हो तो स्त्री से सुखी, उदार, लोकप्रिय, धनिक, विवाह के बाद भाग्योदयी, अल्पव्याभिचारी एवं विलासी होता है। 8. आठवें भाव में शुक्र हो तो निर्दयी, रोगी, क्रोधी, ज्योतिषी, मनस्वी, पर्यटनशील एवं परस्त्रीरत होता है। 9. नौवें भाव में शुक्र हो तो आस्तिक, गृहसुखी, प्रेमी, दयालु, तीर्थस्थानों की यात्रा करने वाला, राजप्रिय एवं धर्मात्मा होता है। 10. दसवें भाव में शुक्र हो तो विलासी, ऐश्वर्यवान, न्यायवान, धार्मिक, गुणवान एवं दयालु होता है। 11. ग्यारहवें भाव में शुक्र हो तो जातक विलासी, वाहनसुखी, स्थिर लक्ष्मीवान, परोपकारी, धनवान, कामी एवं पुत्रवान होता है। 12. बारहवें भाव में शुक्र हो तो न्यायशील, आलसी, पतित, परस्त्रीरत, धनवान एवं मितव्ययी होता है।

कुंडली के बारह भाव में शनि का फल1.
 लग्न में शनि मकर तथा तुला का हो तो जातक धनाढ्य, सुखी और अन्य राशियों का हो तो दरिद्रवान होता है।2. दूसरे भाव में हो तो कटुभाषी और कुंभ या तुला का शनि हो तो धनी, कुटुंब तथा भ्रातृवियोगी, लाभवान होता है। 3. तीसरे भाव में हो तो निरोगी, योगी, विद्वान, चतुर, विवेकी, शत्रुहंता होता है। 4. चौथे भाव में हो तो बलहीन, अपयशी, शीघ्रकोपी, धूर्त, भाग्यवान होता है। 5. पांचवें भाव में हो तो वात रोगी, भ्रमणशील, विद्वान, उदासीन, संतानयुक्त एवं चंचल होता है। 6. छठे भाव में शनि हो तो शत्रुहंता, कवि, भोगी, कंठ व श्वांस रोगी, जातिविरोधी होता है। 7. सातवें भाव में हो तो क्रोधी, धनहीन, सुखहीन, भ्रमणशील, स्त्रीभक्त, विलासी एवं कामी होता है।8. आठवें भाव में हो तो कपटी, वाचाल, डरपोक, धूर्त एवं उदार प्रवृत्ति का होता है। 9. नौवें भाव में हो तो प्रवासी, धर्मात्मा, साहसी, भ्रातृहीन एवं शत्रुनाशक होता है। 10. दसवें भाव में हो तो नेता, न्यायी, विद्वान, ज्योतिषी, अधिकारी, महत्वाकांक्षी एवं धनवान होता है। 11. ग्यारहवें भाव में हो तो दीर्घायु, क्रोधी, चंचल, शिल्पी, सुखी, योगी, पुत्रहीन एवं व्यवसायी होता है।12. बारहवें भाव में शनि हो तो जातक व्यसनी, दुष्ट, कटुभाषी, अविश्वासी, मातृ कष्टदायक, अल्पायु एवं आलसी होता है

कुंडली के बारह भाव में राहु का फल1.
 लग्न में राहु हो तो जातक दुष्ट, मस्तिष्क रोगी, स्वार्थी, राजद्वेषी, कामी एवं अल्पसंतति वाला होता है। 2. दूसरे भाव में राहु हो तो परदेशगामी, अल्पसंतति, अल्प धनवान होता है। 3. तीसरे भाव में राहु हो तो बलिष्ठ, विवेकयुक्त, प्रवासी, विद्वान एवं व्यवसायी होता है। 4. चौथे भाव में हो तो असंतोषी, दुखी, मातृ क्लेशयुक्त, क्रूर, कपटी एवं व्यवसायी होता है। 5. पांचवें भाव में हो तो उदर रोगी, मतिमंद, धनहीन, भाग्यवान एवं शास्त्र प्रिय होता है। 6. छठे भाव में विधर्मियों द्वारा लाभ, निरोग, शत्रुहंता, कमर दर्द पीड़ित, अरिष्ट निवारक एवं पराक्रमी होता है। 7. सातवें भाव में हो तो स्त्री नाशक, व्यापार में हानिदायक, भ्रमणशील, वातरोग जनक, लोभी एवं दुराचारी होता है। 8. आठवें भाव में राहु हो तो पुष्टदेही, क्रोधी, व्यर्थ भाषी, उदर रोगी एवं कामी होता है। 9. नौवें भाव में राहु हो तो प्रवासी, वात रोगी, व्यर्थ परिश्रमी, तीर्थाटनशील, भाग्यहीन एवं दुष्ट बुद्धि होता है। 10. दसवें भाव में राहु हो तो आलसी, वाचाल, मितव्ययी, संततिक्लेशी तथा चंद्रमा से युत हो तो राजयोग कारक होता है। 11. ग्यारहवें भाव में राहु हो तो मंदमति, लाभहीन, परिश्रमी, अल्प संततियुक्त, अरिष्ट नाशक एवं सफल कार्य करने वाला होता है। 12. बारहवें भाव में राहु हो तो विवेकहीन, मतिमंद, मूर्ख, परिश्रमी, सेवक, व्ययी, चिंतनशील एवं कामी होता है।

कुंडली के बारह भाव में केतु का फल1.
 लग्न में केतु हो तो जातक चंचल, भीरू, दुराचारी तथा वृश्चिक राशि में हो तो सुखकारक, धनी एवं परिश्रमी होता है।2. दूसरे भाव में हो तो राजभीरू, विरोधी होता है। 3. तीसरे भाव में केतु हो तो चंचल, वात रोगी, व्यर्थवादी होता है। 4. चौथे भाव में हो तो चंचल, वाचाल, निरुत्साही होता है। 5. पांचवें भाव में हो तो कुबुद्धि एवं वात रोगी होता है। 6. छठे भाव में हो तो वात विकारी, झगड़ालु, मितव्ययी होता है। 7. सातवें भाव में हो तो मतिमंद, शत्रुभीरू एवं सुखहीन होता है। 8. आठवें भाव में हो तो दुर्बुद्धि, तेजहीन, स्त्री द्वैषी एवं चालाक होता है। 9. नौवें भाव में हो तो सुखभिलाषी, अपयशी होता है। 10. दसवें भाव में हो तो पितृ द्वैषी, भाग्यहीन होता है।11. इस स्थान में केतु हर प्रकार का लाभ देता है। जातक भाग्यवान, विद्वान, उत्तम गुणों वाला, तेजस्वी एवं उदर रोग से पीड़‍ित रहता है। 12. इस भाव में केतु हो तो उच्च पद वाला, शत्रु पर विजय पाने वाला, बुद्धिमान, धोखा देने वाला तथा शक्की मिजाज होता है।--: नोट यह ग्रहों का साधारण फल है विशेष के लिए ग्रहों के बलाबल और लग्न के अनुसार फलादेश करना चाहिए 

By:Bhaskaranand Ji

Monday 17 March 2014

भारतीय फलित ज्योतिष


फलित ज्योतिष
फलित ज्योतिष उस विद्या को कहते हैं जिसमें मनुष्य तथा पृथ्वी पर, ग्रहों और तारों के शुभ तथा अशुभ प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। ज्योतिष शब्द का यौगिक अर्थ ग्रह तथा नक्षत्रों से संबंध रखनेवाली विद्या है। इस शब्द से यद्यपि गणित (सिद्धांत) ज्योतिष का भी बोध होता है, तथापि साधारण लोग ज्योतिष विद्या से फलित विद्या का अर्थ ही लेते हैं।

ग्रहों तथा तारों के रंग भिन्न-भिन्न प्रकार के दिखलाई पड़ते हैं, अतएव उनसे निकलनेवाली किरणों के भी भिन्न भिन्न प्रभाव हैं। इन्हीं किरणों के प्रभाव का भारत, बैबीलोनिया, खल्डिया, यूनान, मिस्र तथा चीन आदि देशों के विद्वानों ने प्राचीन काल से अध्ययन करके ग्रहों तथा तारों का स्वभाव ज्ञात किया। पृथ्वी सौर मंडल का एक ग्रह है। अतएव इसपर तथा इसके निवासियों पर मुख्यतया सूर्य तथा सौर मंडल के ग्रहों और चंद्रमा का ही विशेष प्रभाव पड़ता है। पृथ्वी विशेष कक्षा में चलती है जिसे क्रांतिवृत्त कहते हैं। पृथ्वी के निवासियों को सूर्य इसी में चलता दिखलाई पड़ता है। इस कक्षा के इर्द गिर्द कुछ तारामंडल हैं, जिन्हें राशियाँ कहते हैं। इनकी संख्या 12 है। इन्हें, मेष, वृष आदि कहते हैं। प्राचीन काल में इनके नाम इनकी विशेष प्रकार की किरणें निकलती हैं, अत: इनका भी पृथ्वी तथा इसके निवासियों पर प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक राशि 30 की होती है। मेष राशि का प्रारंभ विषुवत् तथा क्रांतिवृत्त के संपातबिंदु से होता है। अयन की गति के कारण यह बिंदु स्थिर नहीं है। पाश्चात्य ज्योतिष में विषुवत् तथा क्रातिवृत्त के वर्तमान संपात को आरंभबिंदु मानकर, 30-30 अंश की 12 राशियों की कल्पना की जाती है। भारतीय ज्योतिष में सूर्यसिद्धांत आदि ग्रंथों से आनेवाले संपात बिंदु ही मेष आदि की गणना की जाती है। इस प्रकार पाश्चात्य गणनाप्रणाली तथा भारतीय गणनाप्रणाली में लगभग 23 अंशों का अंतर पड़ जाता है। भारतीय प्रणाली निरयण प्रणाली है। फलित के विद्वानों का मत है कि इससे फलित में अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि इस विद्या के लिये विभिन्न देशों के विद्वानों ने ग्रहों तथा तारों के प्रभावों का अध्ययन अपनी अपनी गणनाप्रणाली से किया है। भारत में 12 राशियों के 27 विभाग किए गए हैं, जिन्हें नक्षत्र कहते हैं। ये हैं अश्विनी, भरणी आदि। फल के विचार के लिये चंद्रमा के नक्षत्र का विशेष उपयोग किया जाता है।
परिचय

हस्त चित्रित प्रतिलिपि  (Hand-colored). 

                       ज्योतिषशास्त्र या एस्ट्रोलॉजी (ग्रीक भाषा ἄστρον के शब्द एस्ट्रोन,यानि "तारा समूह" -λογία, और -लॉजिया (-logia), यानि "अध्धयन" से लिया गया है). यह प्रणालियों, प्रथाओं (tradition) और मतों (belief) का वो समूह है जिसके ज़रिये आकाशीय पिंडो (celestial bodies) की तुलनात्मक स्थिति और अन्य सम्बंधित विवरणों के आधार पर व्यक्तित्व, मनुष्य की ज़िन्दगी से जुड़े मामलों और अन्य सांसारिक विषयों को समझकर, उनकी व्याख्या की जाती है और इस सन्दर्भ में सूचनाएं संगठित की जाती हैं. ज्योतिष जाननेवाले कोज्योतिषी (astrologer) या एक भविष्यवक्ता कहा जाता है.'तीसरी सहस्राब्दी ई.पू. (3rd millennium BC).  में इसके प्राचीनतम अभिलिखित लेखों से अब तक, ज्योतिष के सिद्धांतों के आधार पर कई प्रथाओं और अनुप्रयोगों के निष्पादन हुआ है. संस्कृति, शुरूआती खगोल विज्ञान, और अन्य विद्याओं को आकार देने में इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

आधुनिक युग (modern era) से पहले ज्योतिष और खगोल विज्ञान (Astrology and astronomy) अक्सर अविभेद्य माने जाते थे. भविष्य के बारे में जानना और दैवीय ज्ञान की प्राप्ति, खगोलीय अवलोकन के प्राथमिक प्रेरकों में से एक हैं. पुनर्जागरण से लेकर १८ वीं सदी के अंत के बाद से खगोल विज्ञान का धीरे धीरे विच्छेद होना शुरू हुआ.फलतः, खगोल विज्ञान ने खगोलीय वस्तुओं के वैज्ञानिक अध्ययन और एक ऐसे सिद्धांत के रूप में अपनी एक पहचान बनाई जिसका उसकी ज्योतिषीय समझ से कुछ लेना देना नहीं था.

ज्योतिषों का विश्वास है की खगोलीय पिंडों की चाल और उनकी स्थिति या तो पृथ्वी को सीधे तरीके से प्रभावित करती है या फिर किसी प्रकार से मानवीय पैमाने पर या मानव द्वारा अनुभव की जाने वाली घटनाओं से सम्बद्ध होती है  आधुनिक ज्योतिषियों द्वारा ज्योतिष को एक प्रतीकात्मक भाषा (symbolic language), एक कला के रूप में या भविष्यकथन (divination),  के रूप में परिभाषित किया गया है, जबकि बहुत से वैज्ञानिकों ने इसे एक छद्म विज्ञान (pseudoscience) या अंधविश्वास (superstition) का नाम दिया है.  परिभाषाओं में अन्तर के बावजूद, ज्योतिष विद्या की एक सामान्य धारणा यह है की खगोलीय पिण्ड अपने क्रम स्थान से भूत और वर्तमान की घटनाओं और भविष्वाणी (prediction) को समझने में मदद कर सकते हैं.एक मतदान में, ३१% अमिरिकियों ने ज्योतिष पर अपना विश्वास प्रकट किया और एक अन्य अध्ययन के अनुसार, ३९% ने उसे वैज्ञानिक माना है.

वैज्ञानिक आधार
ज्योतिष के आधार पर शुभाशुभ फल ग्रहनक्षत्रों की स्थितिविशेष से बतलाया जाता है। इसके लिये हमें सूत्रों से गणित द्वारा ग्रह तथा तारों की स्थिति ज्ञात करनी पड़ती है, अथवा पंचांगों, या नाविक पंचागों, से उसे ज्ञात किया जाता है। ग्रह तथा नक्षत्रों की स्थिति प्रति क्षण परिवर्तनशील है, अतएव प्रति क्षण में होनेवाली घटनाओं पर ग्रह तथा नक्षत्रों का प्रभाव भी विभिन्न प्रकार का पड़ता है। वास्तविक ग्रहस्थिति ज्ञात करने के लिए गणित ज्योतिष ही हमारा सहायक है। यह फलित ज्योतिष के लिये वैज्ञानिक आधार बन जाता है।
कुंडली
कुंडली वह चक्र है, जिसके द्वारा किसी इष्ट काल में राशिचक्र की स्थिति का ज्ञान होता है। राशिचक्र क्रांतिचक्र से संबद्ध है, जिसकी स्थिति अक्षांशों की भिन्नता के कारण विभिन्न देशों में एक सी नहीं है। अतएव राशिचक्र की स्थिति जानने के लिये स्थानीय समय तथा अपने स्थान में होनेवाले राशियों के उदय की स्थिति (स्वोदय) का ज्ञान आवश्यक है। हमारी घड़ियाँ किसी एक निश्चित याम्योत्तर के मध्यम सूर्य के समय को बतलाती है। इससे सारणियों की, जो पंचागों में दी रहती हैं, सहायता से हमें स्थानीय स्पष्टकाल ज्ञात करना होता है। स्थानीय स्पष्टकाल को इष्टकाल कहते हैं। इष्टकाल में जो राशि पूर्व क्षितिज में होती है उसे लग्न कहते हैं। तात्कालिक स्पष्ट सूर्य के ज्ञान से एवं स्थानीय राशियों के उदयकाल के ज्ञान से लग्न जाना जाता है। इस प्रकार राशिचक्र की स्थिति ज्ञात हो जाती है। भारतीय प्रणाली में लग्न भी निरयण लिया जाता है। पाश्चात्य प्रणाली में लग्न सायन लिया जाता है। इसके अतिरिक्त वे लोग राशिचक्र शिरोबिंदु (दशम लग्न) को भी ज्ञात करते हैं। भारतीय प्रणाली में लग्न जिस राशि में होता है उसे ऊपर की ओर लिखकर शेष राशियों को वामावर्त से लिख देते हैं। लग्न को प्रथम भाव तथा उसके बाद की राशि को दूसरे भाव इत्यादि के रूप में कल्पित करते हैं1 भावों की संख्या उनकी कुंडली में स्थिति से ज्ञात होती है। राशियों का अंकों द्वारा तथा ग्रहों को उनके आद्यक्षरों से व्यक्त कर देते हैं। इस प्रकर का राशिचक्र कुंडली कहलाता है। भारतीय पद्धति में जो सात ग्रह माने जाते हैं, वे हैं सूर्य, चंद्र, मंगल आदि। इसके अतिरिक्त दो तमो ग्रह भी हैं, जिन्हें राहु तथा केतु कहते हैं। राहु को सदा क्रांतिवृत्त तथा चंद्रकक्षा के आरोहपात पर तथा केतु का अवरोहपात पर स्थित मानते हैं। ये जिस भाव, या जिस भाव के स्वामी, के साथ स्थित हों उनके अनुसार इनका फल बदल जाता है। स्वभावत: तमोग्रह होने के कारण इनका फल अशुभ होता है। पाश्चात्य प्रणाली में (1) मेष, (2) वृष, (3) मिथुन, (4) कर्क, (5) सिंह, (6) कन्या, (7) तुला, (8) वृश्चिक, (9) धनु, (10) मकर, (11) कुंभ तथा (12) मीन राशियों के लिये क्रमश: निम्नलिखित चिह्न हैं :

1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
(1) बुध, (2) शुक्र, (3) पृथ्वी, (4) मंगल, (5) गुरु, (6) शनि, (7) वारुणी, (8) वरुण, तथा (9) यम ग्रहों के लिये क्रमश: निम्नलिखित चिह्न :
1 2 3 4 5 6 7 8 9
तथा सूर्य के लिये और चंद्रमा के लिये प्रयुक्त होते हैं।

भावों की स्थिति अंकों से व्यक्त की जाती है। स्पष्ट लग्न को पूर्वबिंदु (वृत्त को आधा करनेवाली रेखा के बाएँ छोर पर) लिखकर, वहाँ से वृत्त चतुर्थांश के तुल्य तीन भाग करके भावों को लिखते हैं। ग्रह जिन राशियों में हो उन राशियों में लिख देते हैं। इस प्रकार कुंडली बन जाती है, जिसे अंग्रेजी में हॉरोस्कोप (horoscope) कहते हैं। यूरोप में, भारतीय सात ग्रहों के अतिरिक्त, वारुणी, वरुण तथा यम के प्रभाव का भी अध्ययन करते हैं।

फल का ज्ञान
फल के ज्ञान के लिये राशियों के स्वभाव का अध्ययन करना पड़ता है। कुंडली के विभिन्न भावों से हमारे जीवन से संबंध रखनेवाली विभिन्न बातों का पता चलता है, जैसे प्रथम भाव से शरीर संबंधी, दूसरे भाव से धन संबंधी आदि। जिस भाव में जो राशि हो उसका स्वामी उस भाव का स्वामी होता है। एक ग्रह राशिच्क्र पर विभिन्न प्रकार से किरणें फेंकता है। अतएव कुंडली में ग्रह की दृष्टि भी पूरी या कम मानी जाती है। ग्रह जिस ग्रह स्थान पर अत्यधिक प्रभाव रखता है उसे उच्च तथा उससे सातवें भाव को उसका नीच कहते हैं। सूर्य के सान्निध्य से ग्रह हमें कभी कभी दिखाई नहीं पड़ते; तब वे अस्त हुए कहलाते हैं। इसी प्रकार विभिन्न स्थितियों में ग्रहों के प्रभाव के अनुसार उन्हें बाल, युवा तथा वृद्ध कहते है। ग्रहों के अन्य ग्रह स्वभाव की सदृशता अथवा विरोध के कारण मित्र अथवा शत्रु होते हैं। अतएव फलित के लिये ग्रहों के बलाबल को जाना जाता है। जो ग्रह युवा, अपने स्थान अथवा उच्च में स्थित हो तथा अपने मित्रों से युत अथवा दृष्ट हो, उसका प्रभाव बहुत होता है। इसी प्रकार वह भाव जो अपने स्वामी से युत अथवा दृष्ट हो और जिसमें शुभ ग्रह हों, पूर्ण फल देता है। इस प्रकार ग्रहों के बलाबल, उनकी स्थिति तथा उनपर अन्य ग्रहों का भी विचार किया जाता है। इसके साथ परिस्थितियों तथा मनुष्य की दशा का भी विचार किया जाता है। इन्हीं सब कारणों से फलित बताना अति कठिन कार्य है। जो लोग गणित ज्योतिष के ज्ञान के बिना फल बताते हैं, वे ठीक नहीं बता सकते। चूँकि अधिकांश ज्योतिषी ऐसे ही पाए जाते हैं, इसलिये कुछ लोगों को इस विद्या की वैज्ञानिकता पर संदेह होने लगा है। हमारे जीवन के ऊपर सबसे अधिक सूर्य तथा चंद्रमा का प्रभाव पड़ता है, अतएव पाश्चात्य देशों में सूर्यस्थित राशि (सूर्यकुंडली) तथा चंद्रस्थित राशि (चंद्रकुंडली) को विशेष महत्व देते हैं। सूर्य हृदय की स्थिर प्रवृत्तियों का तथा चंद्रमा प्रतिक्षण चल मानसिक प्रवृत्तियों का बोधक है। अतएव भारत में चंद्रकुंडली को महत्व दिया जाता है। पाश्चात्य देशों में भी अब लोग इसी विचारधारा को प्रश्रय दे रहे हैं। चूँकि सूर्य अथवा चंद्र एक राशि में बहुत समय तक रहते हैं, अत: इनकी कुंडलियों से विभिन्न व्यक्तियों पर होनेवाले प्रभाव का ठीक अध्ययन नहीं किया जा सकता। स्पष्ट लग्न शीघ्र बदलता रहता है, अतएव लग्नकुंडली को व्यक्ति की वास्तविक जन्मकुंडली माना जाता है। सूक्ष्म फल के लिये होरा, द्रेष्काण, नवांश कुंडलियों का उपयोग किया जाता है।

ग्रहदशा
ग्रहों का विशेष फल देने का समय तथा अवधि भी निश्चित है। चंद्रनक्षेत्र का व्यतीत तथा संपूर्ण भोग्यकाल ज्ञात होने से ग्रहदशा ज्ञात हो जाती है। ग्रह अपने शुभाशुभ प्रभाव विशेष रूप से अपनी दशा में ही डालते हैं। किसी ग्रह की दशा में अन्य ग्रह भी अपना प्रभाव दिखलाते हैं। इसे उन ग्रहों की अंतर्दशा कहते हैं। इसी प्रकार ग्रहों की अंतर, प्रत्यंतर दशाएँ भी होती है। ग्रहों की पारस्परिक स्थिति से एक योग बन जाता है जिसका विशेष फल होता है। वह फल किस समय प्राप्त होगा, इसका निर्णय ग्रहों की दशा से ही किया जा सकता है। भारतीय प्रणाली में विंशोत्तरी महादशा का मुख्यतया प्रयोग होता है। इसके अनुसार प्रत्येक मनुष्य की आयु 120 वर्ष की मानकर ग्रहों का प्रभाव बताया जाता है।

शाखाएँ
फलित ज्योतिष की कई शाखाएँ हैं। पाश्चात्य ज्योतिष में इनकी संख्या छह है:
•    (1) व्यक्तियों तथा वस्तुओं के जीवन संबंधी ज्योतिष
•    (2) प्रश्न ज्योतिष,
•    (3) राष्ट्र तथा विश्व संबंधी ज्योतिष,
•    (4) वायुमंडल संबंधी ज्योतिष,
•    (5) आयुर्वेद ज्योतिष तथा
•    (6) ज्योतिषदर्शन।

भारतीय ज्योतिष में केवल जातक तथा संहितास दो शाखाएँ ही मुख्य हैं। पाश्चात्य ज्योतिष की (1), (2) तथा (3) शाखाओं का जातक में तथा शेष तीन का संहिता ज्योतिष में अंतर्भाव हो जाता है।
घटक
ग्रह
गृह    English Name    लिंग    विम्शोतरी दशा(वर्ष)
सूर्य    Sun    पुल्लिंग    6
चंद्र    Moon    स्त्रीलिंग    10
मंगल    Mars    पुल्लिंग    7
बुध    Mercury    नपुंसक    17
बृहस्पति    Jupiter    पुल्लिंग    16
शुक्र    Venus    स्त्रीलिंग    20
शनि    Saturn    पुल्लिंग    19
राहु    Dragon’s Head    पुल्लिंग    18
केतु    Dragon’s Tail    पुल्लिंग    7

राहू एवं केतु वास्तविक गृह नहीं है इन्हे छायाग्रह मना गया है|

ग्रहों कि आपसी मित्रता-शत्रुता इस प्रकार है|
गृह    मित्र    शत्रु    सम
सूर्य    चंद्र, मंगल, गुरु    शुक्र, शनि    बुध
चंद्र    सूर्य, बुध        मंगल, गुरु, शुक्र, शनि
मंगल    सूर्य, चंद्र, गुरु    बुध    शुक्र, शनि
बुध    सूर्य, शुक्र    चंद्र    मंगल, गुरु, शनि
गुरु    सूर्य, चंद्र, मंगल    बुध, शुक्र    शनि
शुक्र    बुध, शनि    सूर्य, चंद्र, मंगल    गुरु
शनि    बुध, शुक्र    सूर्य, चंद्र    मंगल, गुरु

राशि
राशि    English Name    स्वभाव    राशि स्वामी
मेष    Aries    चर    मंगल
वृषभ    Taurus    स्थिर    शुक्र
मिथुन    Gemini    दुईस्वभाव    बुध
कर्क    Cancer    चर    चंद्र
सिंह    Leo    स्थिर    सूर्य
कन्या    Virgo    दुईस्वभाव    बुध
तुला    Libra    चर    शुक्र
वृश्चिक    Scorpio    स्थिर    मंगल
धनु    Sagittarius    दुईस्वभाव    गुरु
मकर    Capricorn    चर    शनि
कुम्भ    Aquarius    स्थिर    शनि
मीन    Pisces    दुईस्वभाव    गुरु

यदि 360° को 12 से विभाजित किया जाए तो एक राशी 30° की होती है|
नक्षत्र
#    नक्षत्र    स्ताथी    नक्षत्र स्वामी    पद 1    पद 4    पद 3    पद 4
1    अश्विनी    0 - 13°20' मेष    केतु    चु    चे    चो    ला
2    भरणी    13°20' - 26°40' मेष    शुक्र    ली    लू    ले    पो
3    कृत्तिका    26°40' मेष - 10°00' वृषभ    सूर्य    अ    ई    उ    ए
4    रोहिणी    10°00' - 23°20' वृषभ    चंद्र    ओ    वा    वी    वु
5    म्रृगशीर्षा    23°20' वृषभ - 6°40' मिथुन    मंगल    वे    वो    का    की
6    आर्द्रा    6°40' - 20°00' मिथुन    राहू    कु    घ    ङ    छ
7    पुनर्वसु    20°00' मिथुन- 3°20' कर्क    गुरु    के    को    हा    ही
8    पुष्य    3°20' - 16°20' कर्क    शनि    हु    हे    हो    ड
9    आश्लेषा    16°40' कर्क- 0°00' सिंह    बुध    डी    डू    डे    डो
10    मघा    0°00' - 13°20' सिंह    केतु    मा    मी    मू    मे
11    पूर्वा फाल्गुनी    13°20' - 26°40' सिंह    शुक्र    नो    टा    टी    टू
12    उत्तर फाल्गुनी    26°40' सिंह- 10°00' कन्या    सूर्य    टे    टो    पा    पी
13    हस्त    10°00' - 23°20' कन्या    चंद्र    पू    ष    ण    ठ
14    चित्रा    23°20' कन्या- 6°40' तुला    मंगल    पे    पो    रा    री
15    स्वाति    6°40' - 20°00 तुला    राहू    रू    रे    रो    ता
16    विशाखा    20°00' तुला- 3°20' वृश्चिक    गुरु    ती    तू    ते    तो
17    अनुराधा    3°20' - 16°40' वृश्चिक    शनि    ना    नी    नू    ने
18    ज्येष्ठा    16°40' वृश्चिक - 0°00' धनु    बुध    नो    या    यी    यू
19    मूला    0°00' - 13°20' धनु    केतु    ये    यो    भा    भी
20    पूर्वाषाढ़ा    13°20' - 26°40' धनु    शुक्र    भू    धा    फा    ढा
21    उत्तराषाढ़ा    26°40' धनु- 10°00' मकर    सूर्य    भे    भो    जा    जी
22    श्रवण    10°00' - 23°20' मकर    चंद्र    खी    खू    खे    खो
23    धनष्ठा    23°20' मकर- 6°40' कुम्भ    मंगल    गा    गी    गु    गे
24    शतभिषा    6°40' - 20°00' कुम्भ    राहू    गो    सा    सी    सू
25    पूर्वाभाद्रपदा    20°00' कुम्भ - 3°20' मीन    गुरु    से    सो    दा    दी
26    उत्तराभाद्रपदा    3°20' - 16°40' मीन    शनि    दू    थ    झ    ञ
27    रेवती    16°40' - 30°00' मीन    बुध    दे    दो    च    ची
यदि 360° को 27 से विभाजित किया जाए तो एक नक्षत्र 13°20'(तेरह डिग्री बीस मिनट) का होता है, अर्थात एक राशी मे सवा-दो(2.25) नक्षत्र होते है |

गहरा विश्वास
प्राचीन काल से ही ज्योतिष में गहरा विश्वास प्रचलित था, जो की हर्मेटिक (Hermetic) मैक्सिम के शब्दों "जैसा ऊपर, वैसा नीचे" के सार में भी समाहित है.टाइको ब्राहे ने ज्योतिष पर अपने अध्ययन में एक समान सारांश दिया है: "सस्पिसीएनडो देस्पिसीयो",ऊपर देखकर भी मैं निचे देखता हूँ". हालांकि, यह सिद्धांत जिसके अनुसार स्वर्ग में घटित घटनाओं का प्रतिबिम्ब पृथ्वी पर भी अवलोकित होता है, दुनिया भर में बहुत सी ज्योतिष परम्पराओं का हिस्सा है, पश्चिम में ऐतिहासिक रूप से ज्योतिष के पीछे काम करने वाली क्रियावली पर ज्योतिषियों के बीच बहस होती आई है.इस पे यह विवाद भी है की आकाशीय पिंड क्या केवल चिन्ह मात्र हैं या यह घटनाओं की पूर्वसूचना हैं, या फिर वे वास्तव में किसी प्रकार की शक्ति या फिर तंत्र से वास्तविक घटनाओं का संचालन करते हैं.[तथ्य वांछित]
भले ही खगोलीय यांत्रिकी (celestial mechanics) और स्थलीय गतिकी (dynamics) के बीच सम्बन्ध सबसे पहले इसाक न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण (gravitation) के सार्वभौमिक सिद्धांत की खोज से सामने आया, लेकिन खगोलीय पिंडों का गुरुत्वाकर्षण ही उनके ज्योतिष प्रभाव को जन्म देता है यह बात किसी वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा नहीं कही गई, न ही किसी ज्योतिष ने इसका समर्थन किया.[तथ्य वांछित]

अधिकतर ज्योतिष परम्पराएं वास्तविक या अनुमानित आकाशीय पिंडों की सापेक्ष स्थिति और गति पर आधारित होती हैं या फिर किसी समय और स्थान पर हुई घटना में लिए गए या गणना में शामिल खगोलीय स्वरुप पर आधारित होते हैं.ये मुख्यतः हैं - ज्योतिष ग्रह (astrological planets), बौने ग्रह (dwarf planets), क्षुद्रग्रह (asteroids), तारें (star), चंद्र आसंधि (lunar node), अरबी भाग (Arabic parts) और काल्पनिक ग्रह (hypothetical planets). इस प्रकार की उल्लेखनीय आभासी स्थिति को उष्णकटिबंधीय (tropical) या तारामंडल (sidereal), एक ओर से बारह चिन्हों (signs) के राशिचक्र (zodiac), और दूसरी ओर से स्थानीय क्षितिज (horizon) (आरोही (ascendant)-अवरोही (descendant) अक्ष) और मध्य-आकाशीय (midheaven) - इमम कोएली (imum coeli) अक्ष के द्वारा परिभाषित किया गया है.
यह उत्तरवर्ती (स्थानीय) ढांचा विशिष्ट रूप से बारह ज्योतिष घरों (astrological houses) में विभाजित किया गया है.इसके अलावा, ये ज्योतिष के विभिन्न पहलु (astrological aspects) ज्यामितीय/कोणीय और विभिन्न खगोलीय पिंडों और कोणों के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है.
भविष्य की प्रवृतिओं और घटनाओं की भविष्यवाणी करने का ज्योतिष का दावा दो मुख्य विधियों पर आधारित है, पश्चिमी ज्योतिष में: ज्योतिष संबंधी पारगमन (astrological transit) और ज्योतिष सम्बन्धी प्रगमन (astrological progression).ज्योतिष सम्बन्धी पारगमन में ग्रहों की गति के आधार पर व्याख्या की जाती है क्योंकि अंतरिक्ष और कुंडली से होकर गुज़रते समय उनकी गति महत्वपूर्ण होती है.ज्योतिष प्रगमन में जन्म कुंडली तय पद्यतियों के अनुसार समय मे आगे की ओर बढती है.वैदिक ज्योतिष में निष्कर्ष पे पहुँचने के लिए ग्रह अवधियों पर ध्यान दिया गया है जबकि पारगमन का प्रयोग समय से जुड़ी महत्त्वपूर्ण घटनाओं में किया जाता है. अधिकांश पश्चिमी ज्योतिषियों ने भी घटनाओं का पूर्वानुमान लगाना छोड़ दिया है, उसके बदले वे सामान्य प्रवृत्तियों और घटनाओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं.तुलनात्मक दृष्टि से, वैदिक ज्योतिष, प्रवृत्तियों और घटनाओं दोनों की भविष्यवाणी करते हैं. संशईवादियों के अनुसार पश्चिमी ज्योतिषियों का ये तरीका प्रमाण योग्य अनुमान लगाने से बचाता है, और उन्हें महत्वपूर्ण से स्वेच्छित और असंबंधित घटनाओं का अभिप्राय अपने सुविधानुसार बताने का सामर्थ्य देता है.
अतीत में, ज्योतिष अक़्सर आकाशीय पिंडों के निकट अवलोकन और उनकी चाल पर आश्रित रहते थे.आधुनिक ज्योतिषी, खगोलविदों (astronomer) के दोवारा दिए हुए आंकडें जो की एक खगोलीय सारणी एफेमेरीडस (ephemerides) के रूप में होते हैं, जो खगोलीय पिंडों की समय के साथ बदलती राशि चक्र स्थिति को दर्शाती है.
परंपराएं


राशि चक्र (Zodiac) चिह्न, १६ वीं शताब्दी यूरोप, एक काष्ठचित्र
ज्योतिषियों की बहुत सारी परमपराएँ हैं, जिनमें से कुछ ज्योतिष सिद्धांतों और संस्कृतियों के प्रसारण के कारण एक सी विशेषता वाली होती हैं अन्य दूसरी परंपराओं का विकास विलगन में हुआ और उनके ज्योतिष सिद्धांत अलग हैं, हालांकि उनमें भी एक ही खगोलीय स्रोत से लिए जाने के कारण कुछ सामान्य विशेषताएं होती हैं.
वर्तमान परंपराएँ
आधुनिक ज्योतिषियों द्वारा जिन मुख्य परम्पराओं का इस्तेमाल किया जाता है, वो हैं
•    वैदिक ज्योतिष (Vedic astrology)
•    पश्चिमी ज्योतिष (Western astrology)
•    चीनी ज्योतिष (Chinese astrology)

वैदिक और पश्चिमी ज्योतिष समान वंश के हैं जैसे की ज्योतिष की कुण्डलीं प्रणाली (horoscopic systems), दोनों परम्पराओं में ध्यान एक ज्योतिष सारणी या कुंडली (horoscope) के निर्माण, खगोलीय तत्वों के प्रस्तुतीकरण, और किसी घटना की जानकारी के लिए सूर्य, चंद्रमा और ग्रहों की स्थिति का ज्ञान.हालांकि, वैदिक ज्योतिष, राशि चक्रों के चिन्हों को मूल नक्षत्रों (constellation) से मिलाकर नक्षत्र राशि चक्र (sidereal zodiac) का प्रयोग करती है , जबकि पश्चिमी ज्योतिष उष्णकटिबंधीय राशि चक्रों (tropical zodiac) का इस्तेमाल करते हैं.विशुओं के पूर्व निर्णय के कारण (precession of the equinoxes), सदियों बाद, पश्चिमी ज्योतिष के बारह राशि चिन्हों का उनके मौलिक नक्षत्रों की तरह आकाश के समान भाग से सम्बन्ध नहीं रहा.प्रव्हाव की दृष्टि से, पश्चिमी ज्योतिष में चिन्हों और नक्षत्रों के बीच सम्बन्ध टूट गया है, जबकि वैदिक ज्योतिष में अभी भी इसका सर्वोच्च महत्व है.दोनों सभ्यताओं के बीच अन्य मतभेदों में शामिल हैं- २७ (या २८) नक्षत्र (nakshatra) या चंद्र भवन के प्रयोग जिनका उपयोग भारत में वैदिक काल से किया जा रहा है और ग्रहों की अवधि की प्रणाली जिन्हें दशा (dashas) के नाम से जाना जाता है.
चीनी ज्योतिष में एक पूर्णतया विभिन् परंपरा का विकास हुआ है.इस में पश्चिमी और भारतीय ज्योतिष से विपरीत आकाश का विभाजन बारह राशि चक्र के स्थान पर आकाशीय भूमध्य रेखाओं द्वारा किया जाता है.चीनीयों ने एक ऐसी प्रणाली विकसित की जिसमें हर चिन्ह दिन के बारह 'दोहरे घंटों ' और साल के बारह महीनो से सम्बद्ध माना जाता था. राशि चक्र का प्रत्येक चिन्ह अलग अलग साल पर शासन करता है और चीनी ब्रह्मांडिकी के पञ्च तत्व प्रणाली के साथ जुड़कर ६० (१२ x ५) वर्ष चक्र देता है. यहाँ यह शब्द, चीनी ज्योतिष सुविधा के लिए प्रयोग किया गया है, लेकिन कोरिया (Korea), जापान, वियतनाम, थाईलैंड और अन्य एशियाई देशों में ठीक इसी परंपरा के संस्करण विद्यमान हैं.
आधुनिक समय में, ये परम्पराएं एक दूसरे के अधिक संपर्क में आई हैं, ध्यान देने वाली बात ये है की भारतीय और चीनी ज्योतिष पश्चिम में प्रचारित हो रही है, जबकि पश्चिमी ज्योतिष की जानकारी अभी भी एशिया में सिमित है. पश्चिमी दुनिया में ज्योतिष विज्ञान में आधुनिक समय में काफ़ी विविधता आई है.नए आन्दोलन दिखाई दिए हैं जिसने अलग अलग दृष्टिकोणों पर ध्यान केंद्रित करते हुए पारंपरिक ज्योतिष को अस्वीकार कर दिया है, जैसे की मध्यबिन्दुओं पर ज्यादा ज़ोर देना, या फिर ज़्यादा मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण .हाल ही में हुए कुछ पश्चिमी विकास:

•    आधुनिक उष्णकटिबंधीय और नक्षत्र कुंडली ज्योतिष
•    ब्रह्माण्ड जीवविज्ञान (Cosmobiology)
•    मनोवैज्ञानिक ज्योतिष (Psychological astrology)
•    जन्म चिन्ह ज्योतिष (Sun sign astrology)
•    ज्योतिष का हैम्बर्ग स्कूल (Hamburg School of Astrology)
o    वरुण ज्योतिष (Uranian astrology), हैम्बर्ग स्कूल का उपसमुच्चय

ऐतिहासिक परंपरा
अपने लंबे इतिहास के दौरान, ज्योतिष विज्ञान ने कई क्षेत्रों में शोहरत प्राप्त की और परिवर्तन के साथ-साथ इसमें विकास भी हुआ. ऐसी कई ज्योतिष परम्पराएं हैं जिनका ऐतिहासिक महत्त्व है, मगर आज वो बहुत कम प्रयोग में आते हैं. ज्योतिषियों की उनमें अभी भी रुचि बरकरार है और वे उसे एक महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखते हैं.ज्योतिष के ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण परंपराओं में शामिल हैं:
•    अरबी और फारसी ज्योतिष (Arab and Persian astrology) (मध्यकालीन मध्य पूर्व)
•    बेबीलोन ज्योतिष (Babylonian astrology) (प्राचीन, मध्यपूर्व)
•    मिस्र ज्योतिष (Egyptian astrology)
•    हेलेनिस्टिक ज्योतिष (Hellenistic astrology) (शास्त्रीय पुरातनता)
•    मायां ज्योतिष (Mayan astrology)
पश्चिमी, चीनी और भारतीय ज्योतिष के इतिहास (history of astrology) की चर्चा इतिहास के मुख्य लेखों में की गई है.

गुप्त परंपराएं
१७ वीं सदी की रसायन विद्या पाठ से उद्धरण और प्रतीक.
कई सूफ़ी या गुप्त परंपराओं को ज्योतिष से जोड़ा गया है.कुछ मामलों में, जैसे कब्बाला (Kabbalah) में, ज्योतिष के अपने पारंपरिक तत्वों को प्रतिभागियों द्वारा इक्कठा करके अंतर्भूत किया जाता है.अन्य मामलों में, जैसे की आगम भविष्यवाणी में, बहुत से ज्योतिषी ज्योतिष के अपने काम में परम्पराओं को सम्मिलित करते हैं. गुप्त परंपराएं में निम्न- लिखित चीज़ें शामिल हैं, लेकिन गुप्त परंपराएं इतने तक ही सीमित नहीं हैं:
•    रसायन विद्या (Alchemy)
•    हस्तरेखा-शास्त्र (Chiromancy)
•    गूढ़ ज्योतिष (Kabbalistic astrology)
•    चिकित्सा ज्योतिष (Medical astrology)
•    संख्या विज्ञान (Numerology)
•    रोसिक्रुसियन (Rosicrucian) या "रोज क्रॉस"
•    टैरो द्वारा भविष्यकथन (Tarot divination)

इतिहास के अनुसार, पश्चिमी दुनिया (Western World) में रसायन विद्या विशेषत: समवर्गी था और ज्योतिष की पारंपरिक बाबिल-यूनानी शैली से मिला हुआ था; कई मायनों में ये मनोगत (occult) या गुप्त ज्ञान को खोजने में एक दूसरे के पूरक थे. ज्योतिष ने रसायन विद्या की चार संस्थापित तत्वों (classical elements) की अवधारणा का प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान समय तक उपयोग किया है. परंपरागत रूप से, सौर-मंडल के सात ग्रोहों में से प्रत्येक का अपना प्रभुत्व क्षेत्र या अधिराज्य है और वो निश्चित धातु पर आधिपत्य रखता है.
राशि चक्र


राशि चक्र (Zodiac) ६ वी सदी में आराधनालय बीट अल्फा, इज़राइल.
Zodiac
राशि चक्र, नक्षत्रों का एक घेरा या समूह है जिसके माध्यम से सूर्य, चंद्रमा, और ग्रह आकाश में पारगमन करते हैं.ज्योतिषियों ने इन नक्षत्रों पर ध्यान दिया और उनको कुछ विशिष्ट महत्व दिया. समय के साथ-साथ उन्होंने बारहों नक्षत्रों की विशिष्टताओं को ध्यान में रखकर उस पर आधारित बारह राशि चिन्हों (signs) की एक प्रणाली बना ली. (मेष (Aries), वृषभ (Taurus), मिथुन (Gemini), कर्क (Cancer), सिंह (Leo), कन्या (Virgo), तुला (Libra), वृश्चिक (Scorpio), धनु (Sagittarius), मकर (Capricorn) , कुंभ (Aquarius) और मीन (Pisces)). पश्चिमी और वैदिक राशि चक्रों का कुण्डलिनी ज्योतिष की परम्परा में एक ही मूल है, इसलिए दोनों एक दूसरे से बहुत से मायने में समान हैं.दूसरी ओर चीन में, राशि चक्र का अलग तरीके से विकास हुआ था. हालांकि चीनियों का भी एक बारह चिन्हों वाला तंत्र है (जानवरों के नाम पर आधारित),चीनी राशि चक्र शुद्ध पंचांग चक्र का हवाल देता है, इसमें पश्चिमी और भारतीय राशि चक्रों से जुड़ा हुआ कोई समकक्ष नक्षत्र नहीं है.
बारह राशि चक्रों की  सर्वनिष्ठ  बात ये है की  सूर्य और चंद्रमा की अंतःक्रिया को ही  ज्योतिष के सभी रूपों में केन्द्र माना गया है.
पश्चिमी ज्योतिषियों के एक बड़े हिस्से ने आकाश को ३० अंश के बारह बराबर खंडों में बाटने वाले उष्णकटिबंधीय राशि चक्र को अपने काम का आधार बनाया जिसकी शुरुआत मेष के पहले बिन्दु से होती है, जहाँ आकाशीय भूमध्य रेखा (celestial equator) और क्रांतिवृत्त (ecliptic) (आकाश के माध्यम से सूर्य के पथ), उत्तरी गोलार्द्ध के वलय विषुव (equinox) पर मिलते हैं.विशुओं के पुरस्सरण के कारण (precession of the equinoxes), पृथ्वी का अंतरिक्ष में घूर्णन करने का रास्ता धीरे धीरे बदलता है , इस प्रणाली में राशि चक्र चिन्ह का समान नाम वाले नक्षत्र (constellation) से कोई संबंध नहीं है, बल्कि वो महीनों और ऋतुओं के संरेखन में (सीध में) रहते हैं.
वैदिक ज्योतिष की परम्परा का पालन करने वाले और अल्प संख्या में यानि कुछ पश्चिमी ज्योतिषी समान नक्षत्र राशि चक्र उपयोग करते हैं.यह राशि चक्र उसी समान रूप से विभाजित क्रांतिमण्डल का प्रयोग करता है लेकिन राशि चिन्हों के समान नाम वाले विचाराधीन नक्षत्रों की स्थिति के लगभग संरेखन में रहता है. नक्षत्र राशि चक्र उष्णकटिबंधीय राशि चक्र से अयानाम्सा (ayanamsa) कही जाने वाली दूरी से बराबर दूरी से अलग है, जो की विशुओं के झुकाव के साथ-साथ आगे बढ़ता है.इसके अलावा, कुछ नक्षत्रज्ञाता (अर्थात् ज्योतिषी जो नक्षत्र तकनीक का प्रयोग करते हैं) वास्तविक, असमान राशिचक्रों के नक्षत्रों को अपने काम में इस्तेमाल करते हैं.
कुण्डलिनी ज्योतिष
ज्योतिष घरों और ग्रहों एवं चिन्हों के लिए बनाऐ गये शिल्प के नमूने को प्रर्दशित करने वाली

१८ वीं सदी आइसलैंड की पांडुलिपि.
Horoscopic astrology
कुंडली ज्योतिष (Horoscopic astrology) प्रणाली, भूमध्य (Mediterranean) क्षेत्र और विशेष रूप से हेलेनिस्टिक मिस्र (Hellenistic Egypt) के आस-पास के क्षेत्र में दूसरी या पहली शताब्दी के शुरूआती दौर में विकसित हुई. ये परम्परा समय के विशिष्ट क्षण पर स्वर्ग या कुंडली के द्वि- आयामी आरेख से सम्बद्ध है.यह चित्र विशेष नियमों और दिशा निर्देशों के आधार पर खगोलीय पिंडों के संरेखण में छिपे अर्थों को समझने के लिए प्रयोग में लाये जाते हैं.एक कुंडली कि गणना सामान्यतः एक व्यक्ति विशेष के जन्म के समय या फिर किसी उद्यम या घटना के शुरुआत में कि जाती है, क्यूंकि उस समय के आकाशीय सरेखण को उन विषयों की प्रकृति का निर्धारक माना जाता है जिनके बारे में हम जानना चाहते हैं.ज्योतिष के इस रूप का एक विशिष्ट लक्षण जो इसे दूसरों से अलग करता है वो है - परीक्षा के विशिष्ट क्षण, जिसे अन्यथा पधान के रूप में भी जाना जाता है., पर क्रांतिवृत्त (ecliptic) की पृष्ठभूमि के सामने, पूर्वी क्षितिज की बढ़ने वाली डिग्री की गणना.कुंडली का ज्योतिष दुनिया भर में फैले ज्योतिष का सर्वाधिक प्रभावशाली रूप है, ख़ास तौर पर अफ्रीका, भारत, यूरोप और मध्य पूर्व में, और भारतीय (Indian), मध्य कालीन और आधुनिक पश्चिम ज्योतिष सहित कुंडली ज्योतिष की कई मुख्य प्रथाएँ, हेलेनिस्टिक परम्पराओं से उत्त्पन्न हुई हैं

कुंडली
चित्र:Horoscope-handdrawn.jpgएक हस्त- लिखित
जन्मकुंडली (horoscope).
कुण्डलिनी ज्योतिष का केन्द्र और उसकी शाखाएं, कुंडली या ज्योतिष के लेखाचित्र की गणना है.यह द्वि-आयामी रेखाचित्र प्रस्तुति, दिए गए समय और स्थान पर, पृथ्वी पर स्थिति के सहारे, स्वर्ग में आकाशीय पिंडों की आभासी स्थिति को दर्शाता है.कुंडली भी बारह विभिन्न खगोलीय गृहों (houses) में विभाजित हैं जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों का निर्धारण करते हैं.कुंडली में जो गणना होती है उसमें गणित और सरल रेखागणित शामिल होती है जो की स्वर्गीय निकायों की स्पष्ट स्थिति और समय का खगोलीय सारणी पर आधारित होती है. प्राचीन हेलेनिस्टिक ज्योतिष में आरोह कुंडली के पहले आकाशीय गृह को परिलक्षित करता था.यूनानी में आरोह के लिए होरोस्कोपोस शब्द का इस्तेमाल किया जाता था जिससे होरोस्कोप शब्द की उत्पत्ति हुई.आधुनिक समय में, यह शब्द ज्योतिष लेखा-चित्र को दर्शाता है.
कुंडली ज्योतिष की शाखाएं
कुंडली ज्योतिष की परम्पराओं को चार शाखाओं में विभाजित किया जा सकता है जो की विशिष्ट विषयों या उद्देश्यों की ओर निर्दिष्ट हैं.अक्सर, ये शाखाएं एक अनूठे प्रकार की तकनीकों का समुच्चय या फिर भिन्न क्षेत्र के लिए प्रणाली के मूल सिद्धांतों के विभिन्न प्रयोगों का इस्तेमाल करती हैं.ज्योतिष के कई अन्य उप-समुच्चयों और प्रयोगों का आरम्भ चार मौलिक शाखाओं से हुआ है.
•    नवजात ज्योतिष (Natal astrology), व्यक्ति की जन्म-पत्री का अध्ययन है जिसके आधार पर व्यक्ति के बारे में और उसके जीवन के अनुभवों के बारे में जानकारी प्राप्त की जाती है.
•    कतार्चिक ज्योतिष (Katarchic astrology) में चुनावी (electional) और घटना ज्योतिष दोनों शामिल हैं. इनमें से पहले ज्योतिष में ज्योतिष के ज्ञान का उपयोग किसी उद्यम या उपक्रम को शुरू करने के लिए शुभ घड़ी का पता लगाने के लिए किया जाता है, और बाद वाले का उपयोग किसी घटना के होने के समय से उस घटना के बारे में सब कुछ समझने के लिए किया जाता है.
•    प्रतिघंटा ज्योतिष (Horary astrology) में ज्योतिषी किसी प्रश्न का जवाब, उस प्रश्न को पूछे जाने के क्षण का अध्धयन करके देता है.
•    सांसारिक या विश्व ज्योतिष (Mundane or world astrology), मौसम, भूकंप, और धर्म या राज्यों के उन्नयन एवं पतन सहित दुनिया में होने वाली विभिन्न घटनाओं के बारे में जानने के लिए ज्योतिष का अनुप्रयोग. इसमें ज्योतिष युग (Astrological Ages), जैसे की कुंभ युग (Age of Aquarius), मीन युग, इत्यादि शामिल हैं.प्रत्येक युग की लम्बाई लगभग २,१५० साल होती है और दुनिया में कई लोग इन महायुगों को ऐतिहासिक और वर्तमान घटनाओं से सम्बद्ध मानते हैं.

ज्योतिष का इतिहास
History of astrology
ट्रेस रिचेस हयूरेस ड डक ड बेरी (Très Riches Heures du Duc de Berry) से


15 वीं सदी में निकाय के क्षेत्र की छवि चित्र शरीर के हिस्सों और राशिचक्रीय संकेतों के बीच संबंधों को दर्शाता है.
उत्पत्ति
ज्योतिष के जो सिद्धांत बाद में एशिया, यूरोपऔर मध्य पूर्व में विकसित हुए उनका वर्णन प्राचीन बाबिल (Babylonians) में भी है और खगोलीय चिन्हों की उनकी प्रणाली दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के मध्य में संकलित की गई. बाद में खगोलीय चिन्हों की यहीं प्रणाली प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में बाबिल से भारत, मध्य पूर्व और मिस्र में फैली, जहाँ यह पहले से विद्यमान ज्योतिष के स्वदेशी रूपों के साथ मिल गई.[21] बाबिल की ज्योतिष मिस्र में आरम्भ में चौथी शाताब्ब्दी के मध्य ईसा पूर्व में आई थी, और दूसरी और पहली शाताब्ब्दी के शुरुआत में ऐलेक्जेन्द्रिया की विजय के बाद (Alexandrian conquests), यह बाबिल ज्योतिष, मिस्त्र सभ्यता के दक्षिणी ज्योतिष से मिश्रित हो गई और कुंडली ज्योतिष का निर्माण किया. (horoscopic astrology)ज्योतिष के इस नवीन प्रारूप की उत्पत्ति ऐलेक्जेन्द्रिया मिस्र (Alexandrian Egypt) की मानी जाती है, जल्द ही ये प्राचीन दुनिया में यूरोप, मध्य पूर्व और भारत में फैल गई.

आधुनिक युग के पहले
खगोल विज्ञान और ज्योतिष के बीच अन्तर जगह जगह पर अलग है, वे दृढ़ता से प्राचीन भारत[22][23], प्राचीन बाबिल और मध्यकालीन यूरोप (medieval Europe) से जुड़ी हुई है, लेकिन हेलेनिस्टिक दुनिया (Hellenistic world) से एक हद तक अलग है. ज्योतिष और खगोल विज्ञान (astrology and astronomy) के बीच पहला शब्दार्थिक (semantic) अन्तर ११ वीं सदी में फारसी खगोलज्ञ (Persian astronomer) अबू- रेहान-अल-बिरूनी (Abū Rayhān al-Bīrūnī) द्वारा दिया गया था. (ज्योतिष और खगोल विज्ञान (astrology and astronomy) देखें).
ज्योतिष उद्यमों से प्राप्त किये गए खगोलीय ज्ञान का स्वरूप इतिहास में प्राचीन भारत से लेकर माया सभ्यता से मध्यकालीन यूरोप तक कई संस्कृतियों में दोहराया गया है, . इस ऐतिहासिक योगदान को देखते हुए, ज्योतिष को रसायन विद्या (alchemy) की तरह छद्म विज्ञान (pseudoscience) के साथ-साथ प्रोटो साइंस (protoscience) कहा जाने लगा (पश्चिमी ज्योतिष तथा रसायन विद्या नीचे से देखें).
आधुनिक युग से पहले कभी ज्योतिष को बिना आलोचना के स्वीकार नहीं किय गया; हेलेनिस्टिक संशयी लोगों, गिरिजाघर अधिकारियों और मध्यकालीन मुस्लिम खगोलशास्त्रियों (Muslim astronomers) जैसे की अल-फराबी (Al-Farabi), (अलफरेबिउस), इब्न-अल- हेथम (Ibn al-Haytham) , ( आल्हाजें), अबू-रेहान-अल-बिरूनी (Abū Rayhān al-Bīrūnī), ऐविसेना (Avicenna) और ऐविरोज़ ने इसे काफी चुनौतियां दीं. ज्योतिष को झूठा ठहराए जाने के वैज्ञानिक (ज्योतिष शास्त्रियों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले तरीके अनुमान पर आधारित (conjectural) थे न की प्रयोग (empirical) पर) और धार्मिक (रूढिवादी इस्लामी विद्द्वानों (Islamic scholars) से विवाद) दोनों ही कारण थे.[25] इब्न क़य्यिम-अल जव्जिय्या (Ibn Qayyim Al-Jawziyya)ने (१२९२-१३५०) अपने मिफ्थ डार अल-सा केदाह में ज्योतिष और भविष्यवाणी (divination) का खंडन करने के लिए प्रयोगाश्रित तर्कों का इस्तेमाल किया है.
कई प्रमुख विचारकों, दार्शनिकों और वैज्ञानिकों, जैसे की पाइथागोरस , प्लेटो, अरस्तू (Aristotle), गैलेन (Galen) , पारासेलसस (Paracelsus), गिरोलामो कार्डन (Girolamo Cardan) , निकोलस कोपर्निकस (Nicholas Copernicus), ताकी अल- दीन (Taqi al-Din), ताईको ब्राहे, गैलीलियो गैलीली, जोहानिस केप्लेर, कार्ल जंग (Carl Jung) और दूसरों ने या तो ज्योतिष के सिद्धांतों का प्रयोग किया या ज्योतिष में उल्लेखनीय योगदान दिया.

आधुनिक दृष्टिकोण
आधुनिक समय में ज्योतिष व्यवहार में कई नवरचनाएं हुई हैं.
पश्चिमी ज्योतिष
•    २० वीं शताब्दी के मध्य के दौरान, अल्फ्रेड विट्टे (Alfred Witte) और उनके बाद रेंहोल्ड इबरटीन (Reinhold Ebertin) ने केन्द्र बिन्दुओं के कुंडली इस्तेमाल के (midpoints in Astrology) विश्लेषण में अग्रगामी रहे. (ज्योतिष में केंद्रबिंदु)
•    १९३० के दशक से १९८० के दशक तक डेन रूध्यार (Dane Rudhyar), लिज़ ग्रीन (Liz Greene) और स्टीफेन अरोयो (Stephen Arroyo) सहित कई ज्योतिष शास्त्रियों ने मनोवैज्ञानिक विश्लेषण (astrology for psychological analysis) के लिए ज्योतिष का प्रयोग किया, जिनमें से कुछ कार्ल ज़ंग (Carl Jung) जैसे महान मनोवैज्ञानिक भी थे.
•    १९३० के दशक में डॉन नेरोमन (Don Neroman), "एस्ट्रोजियोग्राफी" के नाम से एक स्थानीय ज्योतिष शास्त्र (Locational Astrology) को विकसित करके इसे यूरोप में लोकप्रिय भी बनाया. १९७० के दशक में अमेरिका के ज्योतिषी जिम लेविस ने (Jim Lewis)आस्ट्रोकार्टोग्राफी नाम की (Astrocartography). एक लोकप्रिय और अलग दृष्टिकोण विकसित की. दोनों ही तरीकों से स्थान में परिवर्तन के साथ जीवन की स्थितियों में आने वाले बदलाओ को जाना जाता है.

वैदिक ज्योतिष
•    १९६० के दशक में,एच.आर.शेषाद्रि (H.R. Seshadri Iyer)अय्यर ने योग बिंदु को जोड़कर एक प्रणाली शुरू की जो की पश्चिम में लोकप्रिय हुई.
•    १९९० के दशक के शुरूआती दौर से, भारतीय वैदिक ज्योतिष शास्त्री और लेखक वी. के. चौधरी (V.K. Choudhry) ने जन्मपत्री पढने के लिए (Systems' Approach for Interpreting Horoscopes)प्रणाली दृष्टिकोण (भविष्य बताने वाला ज्योतिष) ज्योतिष, की एक सरल प्रणाली की रचना की.[28] यह प्रणाली ज्योतिष, ज्योतिष जानने की कोशिश कर रहे हैं लोगों की मदद करती है, इसे "एस ए" भी कहते हैं.
•    स्वर्गीय के. एस. कृष्णामूर्ति (K. S. Krishnamurti) ने विचाराधीन ग्रह की दशा (dasha) के अनुपात को तारों (stars) से उप-विभाजित करके तारों के विश्लेषण पर आधारित कृष्णामूर्ति पद्धति का विकास किया, यह प्रणाली "के पी" और "उप सिद्धांत" के नाम से जानी जाती है.

दुनिया की संस्कृति पर प्रभाव
Cultural influence of astrology
ज्योतिष विज्ञान का पश्चिमी तथा पूर्वी संस्कृतियों पर गहरा प्रभाव पड़ा है. मध्य कालीन युग में, जब शिक्षित लोग ज्योतिष में विश्वास करते थे, स्वर्गिक पिंडों को ज्ञान की प्रणाली और उनके नीचे स्थित संसार का परावर्तन करने वाली प्रणाली के रूप में माना जाता था.
ज्योतिष ने विज्ञान भाषा और साहित्य दोनों को प्रभावित किया है. उदाहरण के लिए, इन्फ़्लुएन्ज़ा या जुकाम (influenza) शब्द मध्यकालीन लैटिन शब्द इन्फ़्लुएन्शिय से लिया गया, इसका नाम ऐसा इसलिए पड़ा क्योंकि चिकित्सकों का मानना था की महामारी प्रतिकूल ग्रहों और तारकीय प्रभाव की वजह से फैलती है.] शब्द आपदा, "डिसास्टर" इटालियन शब्द डिसैस्ट्रो से लिया गया है जो की एक "नाकारात्मक उपसर्ग" डिस और लैटिन शब्द ऐस्टर " तारा" से व्युत्पन्न है, जिसका मतलब है बुरे तारे या "दुष्ट-नक्षत्र". विशेषण, "ल्यूनेटिक" (ल्यूना/चन्द्रमा), "मेर्कयुरिअल" (मर्कारी), "मैथुनिक", (शुक्र) सामरिक, (मंगल (Mars)), "आनन्दित" (बृहस्पति/ जोव), और "सीसक" (शनि) पुराने शब्द हैं जिनका प्रयोग उन व्यक्तिगत गुणों को बताने के लिए किया जाता था जो ग्रहों के ज्योतिष लक्षणों से सबसे ज़्यादा मिलते थे या प्रभावित होते थे, इनमे से कुछ गुण प्राचीन रोमन देवताओं के गुणों से व्युत्पन्न हैं और उनका नाम भी उसी आधार पर रखा गया है. साहित्य में, कई लेखकों विशेषकर जिओफ्फ्रे चौसर (Geoffrey Chaucer) और विलियम शेक्सपियर, ने अपने पात्रों का वर्णन करने के लिए ज्योतिष के चिनों का प्रयोग किया और इस तरीके से उस विवरण में बारीकी पैदा की. हाल ही में, मिचेल वार्ड ने कहा था की क्रोनिकाल्स ऑफ़ नारनिया (Chronicles of Narnia) के रचयिता सी.एस.लुईस (C.S. Lewis) ने अपनी रचना को सात स्वर्गों के पात्रों और चिन्हों से सराबोर किया. अक्सर, ज्योतिष प्रतीकों को समझने वाले साहित्यों की सराहना करने की आवश्यकता है.

कुछ आधुनिक विचारकों विशेषकर, कार्ल जंग  का विश्वास था की ज्योतिष में दिमाग को पढने और भविष्य बताने की ताकत हैशिक्षा के क्षेत्र में ज्योतिष मध्य कालीन यूरोप (medieval Europe) की विश्व विद्यालयी शिक्षा (university education) में प्रतिबिंबित होता है, जिसे सात पृथक क्षेत्रों में विभाजित किया गया था, जिनमे से प्रत्येक एक ग्रह द्वारा प्रस्तुत किया जाता था और उसे सात स्वतंत्र कलाओं (liberal arts) के रूप में जाना जाता था. दांते अलीघिरी ने विचार किया कि ये कलाएं जो आज उस विज्ञान में बदल चुकी हैं, जिसे हम भली भाति जानते हैं, उसी ढाँचे में फिट बैठती हैं जिसमें ग्रहों को फिट किया जाता है. संगीत में ज्योतिष शास्त्र का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण है, ब्रिटिश संगीतकार गुस्तव होस्ट (Gustav Holst) द्वारा बनाया गया ऑर्केस्ट्रा सूट, "द प्लैनेट्स (The Planets)", जिसका ढांचा ग्रहों के ज्योतिष चिन्हों पर आधारित है.

ज्योतिष और विज्ञान
फ्रांसिस बेकन (Francis Bacon) और वैजानिक क्रान्ति के समय से शुरू हुई वैज्ञानिक शिक्षण कि नई शाखाएं, प्रायोगिक अवलोकनों पर आधारित प्रणालीबद्ध प्रायोगिक प्रेरणा के तरीकों पर आधारित होने लगी  इस बिन्दु पर, ज्योतिष शास्त्र और खगोलमिति अलग-अलग हो गए, खगोलमिति एक केन्द्रीय या मुख्य विज्ञान के रूप में उभरा जबकि ज्योतिष शास्त्र प्रकृति वैज्ञानिकों द्वारा एक अंधविश्वास या एक गुप्त विज्ञान के रूप में देखा गया.यह अलगाव अठारहवी और उन्नीसवीं सदी के दौरान और तेज़ हो गया.  साँचा:Infobox Pseudoscience
समकालीन वैज्ञानिकों जैसे की रिचर्ड डौकिंस (Richard Dawkins) और स्टीफेन हाउकिंस (Stephen Hawking) ने ज्योतिष शास्त्र को अवैज्ञानिक कहा  और पैसिफिक खगोलमिति समाज (Astronomical Society of the Pacific) के ऐनड्रयू फ्राकनोई (Andrew Fraknoi) ने इसे छद्म विज्ञान कहा.  १९७५ में, अमरीकी मानववादी संगठन (American Humanist Association) ने ज्योतिष शास्त्र में विश्वास करने वालों के संदर्भ में कहा कि वो लोग ज्योतिष में विश्वास करते हैं जबकि उनके विश्वास का कोई प्रमाणित वैज्ञानिक आधार नहीं है बल्कि उसके ख़िलाफ़ कई प्रमाण हैं.  ज्योतिर्विद कार्ल सेगन ने पाया की वो इस वक्तव्य पर हताक्षर नहीं कर सकते, इसलिए नहीं की वो ये सोचते है की ज्योतिष मान्य है बल्कि इसलिए क्यूंकि उन्हें लगता है की इस वक्तव्य का लहजा सत्तावादी (authoritarian) है.  सेगन ने कहा की वो एक ऐसे वक्तव्य पर हस्ताक्षर करने के इच्छुक होते और ज्योतिष के विश्वास के मुख्य सिधान्तों को नकारते, जो इस वक्तव्य से ज्यादा विश्वासोत्पादक और इस से कम विवाद पैदा करने वाला होता.
भले ही एक समय में ज्योतिष शास्त्र का बड़ा ही सिमित स्थान रहा हो, लेकिन २० वी शताब्दी की शुरुआत से ही ये ज्योतिष शास्त्रियों के बीच अनुसंधान का विषय रहा है. २० वी शताब्दी में नवजात ज्योतिष अनुसंधानों के ऐतिहासिक अध्धयन में, ज्योतिष आलोचक जैफरे डीन और सह लेखकों ने एक मुकुलित अनुसंधान कार्य का उत्पादन किया, जो की प्राथमिक रूप से ज्योतिष शाश्त्र्दियों के समुदाए में ही रहा.
अनुसंधान


मंगल प्रभाव (Mars effect): प्रसिद्ध खिलाडिओं के जन्म सारिणी में मंगल की दैनिक स्थिति (diurnal position) में परिवर्तन से आने वाली आपेक्षिक आवृत्ति.
अध्धयन ज्योतिष अनुमान और कार्यकारी तरीके से निकाले गए (operationally-defined) परिणामो के बीच सांख्यिकीय महत्व (statistically significant) से सम्बन्ध स्थापित करने में बार बार असफल रहे हैं. ज्योतिष में प्रभाव आकार (Effect size) के अध्धयन इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं की ज्योतिष अनुमानों की औसत सटीकता संयोग से होने वाली चीज़ों से ज्यादा नहीं है, और ज्योतिष का कथित प्रदस्र्शन आलोचनात्मक निरिक्षण के समय पूरी तरह गायब हो जाता है  संज्ञानात्मक (cognitive) व्यवहार (behavioral), शारीरिक और अन्य परिवर्तनशील घटकों की जांच के लिए अध्धयन करते समय , "टाइम ट्विन्स (time twins)" के एक ज्योतिष अध्धयन ने ये प्रर्दशित किया की मानव लक्षण जन्म के समय सूर्य, चंद्र, और ग्रहों से प्रभावित नहीं होती. ज्योतिष पर संशय करने वालों का ये भी कहना है की ज्योतिष व्याख्याओं और किसी के व्यक्तित्व के विवरण की कथित (fact) सटीकता इस वजह से है क्यूंकि लोग सकारात्मक 'बिन्दुओं या हिट्स' को बढ़ा-चढा कर लेते हैं और जो कुछ भी पसंद नहीं आता या फिट नहीं होता उसे नज़र अंदाज़ कर देते हैं विशेषकर तब जब विवरण के लिए अस्पष्ट भाषा का प्रयोग किया गया हों (vague language is used). वे यह भी तर्क देते हैं की अनियंत्रित शिल्पकृतियों के कारण ज्योतिष के साक्ष्यों को अक्सर गलत रूप में देखा जाता है. "एस्ट्रो -ट्विन्स" के १५ ,००० नमूनों का एक बड़े पैमाने पर अध्ययन, २००६ में प्रकाशित हुआ था.इसने जन्म की तारीख और सामान्य बुद्धि और व्यक्तित्व के व्यक्तिगत अन्तर के बीच सम्बन्ध की जांच की और इस निष्कर्ष पर पहुँचा की दरअसल इनके बीच कोई सम्बन्ध है ही नहीं.  यह भी पाया गया है की राशि चक्रों और प्रतिभागियों के व्यक्तिगत गुण के बीच कोई रिश्ता नहीं होता है.

फ्रांसीसी मनोवैज्ञानिक और सांख्यिकीविद माइकल गौकुएलिन (Michel Gauquelin) ने दावा किया की उन्होंने कुछ ग्रहों की स्थिति और कुछ मानवीय गुण जैसे वृति या पेशे के बीच सम्बन्ध पाया है. गौकुएलिन के सबसे व्यापक रूप से ज्ञात दावे को मंगल प्रभाव (Mars effect) के रूप में जाना जाता है, जो की मंगल ग्रह से सम्बन्ध प्रर्दशित करते हुए ये दिखाता है की आम आदमी की तुलना में किसी प्रसिद्ध खिलाडी के जन्म के समय मंगल ग्रह प्रायः आकाश में कुछ विशिष्ठ स्थितियों में होता है यही दावा रिचर्ड तर्नस (Richard Tarnas) ने अपनी कृति ब्रह्मांड और मानसिकता में भी किया है इसमे उन्होंने ग्रहों की स्थिति और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण घटनाओं और लोगों के बीच संबंधों की खोज की है १९५५ में इसके मूल प्रकाशन से, मंगल प्रभाव, इसे खारिज करने वाले कई आलोचनात्मक अध्ध्यनों और संशयी (skeptical) प्रकाशनों का विषय रहा है, और साथ ही मंगल प्रभाव के मूल दावों का समर्थन करने वाले या उसे विस्तृत करने वाले कई अध्धयन भी सीमान्त पत्रों (fringe journals) में प्रकाशित हुए हैं. गौकुएलिन की खोज पर विज्ञान की मुख्यधारा ने विशेष ध्यान नहीं दिया.
टोलेमैक प्रणाली (Ptolemaic system),  ऐन्द्रिआस सेलेरिअस (Andreas Cellarius),  १६६०/६१ द्वारा वर्णित.

अनुसंधान में बाधाएं
ज्योतिषशास्त्रियों का तर्क है की आज ज्योतिष शास्त्र में वैज्ञानिक अनुसंधान करने में कुछ महत्वपूर्ण बाधाएं हैं, जिसमें शामिल है - धन की कमी, ज्योतिष शास्त्रियों द्वारा विज्ञान और सांख्यिकी में पृष्ठ भूमि की कमी, और संशय करने वालों एवं वैज्ञानिकों का ज्योतिष शास्त्र में पर्याप्त रूप से दक्ष ना होना  ज्योतिष शास्त्र में वैज्ञानिक अनुसन्धान (scientific research) के क्षेत्र में प्रकाशित पत्रों की संख्या बहुत कम है (यानी वैज्ञानिक अनुसंधान की तरफ़ निर्दिष्ट ज्योतिष पत्र या ज्योतिष अनुसंधान का प्रकाशन करने वाले वैज्ञानिक पत्र (scientific journal)दोनों ही कम संख्या में हैं) कुछ ज्योतिष शास्त्रियों का मानना है की आज ज्योतिष का काम करने वाले कुछ लोग वैज्ञानिक जांच का प्रयोग इसलिए करते हैं क्यूंकि उन्हें लगता है की दैनिक रूप से ग्राहकों के साथ काम करने से उनका व्यक्तिगत सत्यापन (personal validation) होगा.
ज्योतिष शास्त्रियों द्वारा दिया गया एक और तर्क है कि ज्योतिष के ज्यादातर अध्ययन में ज्योतिष अभ्यास की प्रकृति प्रतिबिंबित नहीं होती और वैज्ञानिक पद्धति (scientific method) ज्योतिष पर लागू नहीं होती. ज्योतिष पर विचार रखने वाले कुछ लोगों का तर्क है कि ज्योतिष के विरोधियों के इरादे और मौजूदा नजरिए के चलते ज्योतिष कि सटीकता मालूम करने के लिए होने वाले प्रोयोगों में, चेतन या अचेतन रूप से, जाँची जाने वाली परिकल्पना के निर्माण , जांच के संचालन और परिणाम की सूचना पक्षपात पूर्ण ढंग से दी जाती हैं  

संदर्भ: विकिपीडिया