Saturday 6 September 2014

वेद हिन्दू सनातन धर्म का आधार स्तम्भ

 ""वेद हिन्दू सनातन धर्म का आधार स्तम्भ"" है...!

जैसा कि आप सभी जानते हैं कि.... ""वेद हिन्दू सनातन धर्म का आधार स्तम्भ"" है...!

परन्तु दुर्भाग्य से.... आधुनिक एवं कलुषित शिक्षा प्रणाली के कारण... आज अत्यधिक पढ़े लिखे लोग भी हमारे अपने धार्मिक एवं परम पवित्र वेद के बारे में बहुत ही कम जानते हैं...!

वेद..... 'विद' शब्द से बना है.... जिसका अर्थ होता है...... ज्ञान या जानना... अथवा , ज्ञाता या जानने वाला..!

सिर्फ जानने वाला... और, जानकर जाना-परखा ज्ञान.... अनुभूत सत्य.... जाँचा-परखा मार्ग....ही वेद है..!

और, हमारे इसी वेद में संकलित है...... 'ब्रह्म वाक्य'।
आपको यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि....वेद..... मानव सभ्यता के सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं.......।

इनमे से ....वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं......जिनमे ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं...... जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है।

ज्ञातव्य है कि....यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है.... और, यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है।

वेद को 'श्रुति' भी कहा जाता है..... और ... 'श्रुति' शब्द 'श्रु' धातु से शब्द बना है......... 'श्रु' यानी सुनना।

कहते हैं कि...... इसके मन्त्रों को ईश्वर (ब्रह्म) ने प्राचीन तपस्वियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था..... जब वे गहरी तपस्या में लीन थे।

सर्वप्रथम ईश्वर ने चार ऋषियों को इसका ज्ञान दिया:- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य।

वेद ......वैदिककाल की वाचिक परम्परा की अनुपम कृति हैं...... जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिछले छह-सात हजार ईस्वी पूर्व से चली आ रही है।

विद्वानों ने...... संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद इन चारों के संयोग को समग्र वेद कहा है..... और, ये चारों भाग सम्मिलित रूप से श्रुति कहे जाते हैं।

बाकी ग्रन्थ स्मृति के अंतर्गत आते हैं।

संहिता इसका मन्त्र भाग है.... और, वेद के मन्त्रों में सुंदरता भरी पड़ी है।

वैदिक ऋषि जब स्वर के साथ वेद मंत्रों का पाठ करते हैं, तो चित्त प्रसन्न हो उठता है.... और, जो भी सस्वर वेदपाठ सुनता है... वो मुग्ध हो उठता है।

ब्राह्मण : ब्राह्मण ग्रंथों में मुख्य रूप से यज्ञों की चर्चा है... और, वेदों के मंत्रों की व्याख्या है.... तथा, यज्ञों के विधान और विज्ञान का विस्तार से वर्णन है।

मुख्य ब्राह्मण 3 हैं : (1) ऐतरेय, ( 2) तैत्तिरीय और (3) शतपथ।

आरण्यक : वन को संस्कृत में कहते हैं 'अरण्य'.... इसीलिए, अरण्य में उत्पन्न हुए ग्रंथों का नाम पड़ गया 'आरण्यक'।

मुख्य आरण्यक पाँच हैं :
(1) ऐतरेय, (2) शांखायन, (3) बृहदारण्यक, (4) तैत्तिरीय और (5) तवलकार।

उपनिषद : उपनिषद को वेद का शीर्ष भाग कहा गया है और यही वेदों का अंतिम सर्वश्रेष्ठ भाग होने के कारण "वेदांत" कहलाए।

उपनिषद में ईश्वर, सृष्टि और आत्मा के संबंध में गहन दार्शनिक और वैज्ञानिक वर्णन मिलता है..।

उपनिषदों की संख्या 1180 मानी गई है, लेकिन वर्तमान में 108 उपनिषद ही उपलब्ध हैं।

जिनमे से मुख्य उपनिषद हैं- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वर।

असंख्य वेद-शाखाएँ, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद विलुप्त हो चुके हैं.... और, वर्तमान में ऋग्वेद के दस, कृष्ण यजुर्वेद के बत्तीस, सामवेद के सोलह, अथर्ववेद के इकतीस उपनिषद उपलब्ध माने गए हैं।

वैदिक काल :
प्रोफेसर विंटरनिट्ज मानते हैं कि वैदिक साहित्य का रचनाकाल 2000-2500 ईसा पूर्व हुआ था।

दरअसल... वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई.... अर्थात, यह धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: माना यह जाता है कि पहले वेद को तीन भागों में संकलित किया गया- ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद जिसे वेदत्रयी भी कहा जाता था।

ऐसी मान्यता है कि.... वेद का विभाजन भगवान् राम के जन्म के पूर्व पुरुरवा ऋषि के समय में हुआ था... और, बाद में अथर्ववेद का संकलन ऋषि अथर्वा द्वारा किया गया।

दूसरी ओर कुछ लोगों का यह भी मानना है कि...... भगवान कृष्ण के समय द्वापरयुग की समाप्ति के बाद महर्षि वेद व्यास ने वेद को चार प्रभागों संपादित करके व्यवस्थित किया।
इन चारों प्रभागों की शिक्षा चार शिष्यों पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु को दी... और, उस क्रम में ऋग्वेद- पैल को, यजुर्वेद- वैशम्पायन को, सामवेद- जैमिनि को तथा अथर्ववेद- सुमन्तु को सौंपा गया।

अगर इस गणना को ही मान लिया जाये तो भी.... लिखित रूप में आज से 6508 वर्ष पूर्व पुराने हैं... वेद।

और.....इस तथ्य को भी नाकारा नहीं जा सकता है कि .....कृष्ण के आज से 5112 वर्ष पूर्व होने के पुख्ता प्रमाण ढूँढ लिए गए हैं।

वेद के कुल चार विभाग हैं:

ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।

१. ऋग-स्थिति,
२. यजु-रूपांतरण,
३. साम-गतिशील और
४. अथर्व-जड़।

ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है।

इन्ही चारों के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई।

ऋग्वेद : ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान। इसमें 10 मंडल हैं और 1,028 ऋचाएँ। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियाँ और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें 5 शाखाएँ हैं - शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन।

यजुर्वेद : यजुर्वेद का अर्थ : यत् + जु = यजु। यत् का अर्थ होता है गतिशील तथा जु का अर्थ होता है आकाश। इसके अलावा कर्म। श्रेष्ठतम कर्म की प्रेरणा। यजुर्वेद में 1975 मन्त्र और 40 अध्याय हैं। इस वेद में अधिकतर यज्ञ के मन्त्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। यजुर्वेद की दो शाखाएँ हैं कृष्ण और शुक्ल।

सामवेद : साम अर्थात रूपांतरण और संगीत। सौम्यता और उपासना। इसमें 1875 (1824) मन्त्र हैं। ऋग्वेद की ही अधिकतर ऋचाएँ हैं। इस संहिता के सभी मन्त्र संगीतमय हैं, गेय हैं। इसमें मुख्य 3 शाखाएँ हैं, 75 ऋचाएँ हैं और विशेषकर संगीतशास्त्र का समावेश किया गया है।

अथर्ववेद : थर्व का अर्थ है कंपन और अथर्व का अर्थ अकंपन। ज्ञान से श्रेष्ठ कम करते हुए जो परमात्मा की उपासना में लीन रहता है वही अकंप बुद्धि को प्राप्त होकर मोक्ष धारण करता है। अथर्ववेद में 5987 मन्त्र और 20 कांड हैं। इसमें भी ऋग्वेद की बहुत-सी ऋचाएँ हैं। इसमें रहस्यमय विद्या का वर्णन है।

उक्त सभी में परमात्मा, प्रकृति और आत्मा का विषद वर्णन और स्तुति गान किया गया है। इसके अलावा वेदों में अपने काल के महापुरुषों की महिमा का गुणगान व उक्त काल की सामाजिक, राजनीतिक और भौगोलिक परिस्थिति का वर्णन भी मिलता है।

छह वेदांग : (वेदों के छह अंग)- (1) शिक्षा, (2) छन्द, (3) व्याकरण, (4) निरुक्त, (5) ज्योतिष और (6) कल्प।

छह उपांग : (1) प्रतिपदसूत्र, (2) अनुपद, (3) छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), (4) धर्मशास्त्र, (5) न्याय तथा (6) वैशेषिक।

ये 6 उपांग ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इसे ही षड्दर्शन कहते हैं, जो इस तरह है:- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत।

वेदों के उपवेद : ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।

आधुनिक विभाजन : आधुनिक विचारधारा के अनुसार चारों वेदों का विभाजन कुछ इस प्रकार किया गया-

(1) याज्ञिक, (2) प्रायोगिक और (3) साहित्यिक।

वेदों का सार है...... उपनिषदें और उपनिषदों का सार...... 'गीता' को माना है।

इस क्रम से वेद, उपनिषद और गीता ही धर्मग्रंथ हैं, दूसरा अन्य कोई नहीं।

स्मृतियों में वेद वाक्यों को विस्तृत समझाया गया है।

जबकि....वाल्मिकी रामायण और महाभारत को इतिहास तथा पुराणों को पुरातन इतिहास का ग्रंथ माना है।

विद्वानों ने भी वेद, उपनिषद और गीता के पाठ को ही उचित बताया है।

ऋषि और मुनियों को दृष्टा कहा गया है..... और, वेदों को ईश्वर वाक्य।

वेद ऋषियों के मन या विचार की उपज नहीं है.... और, ऋषियों ने वह लिखा या कहा जैसा कि... उन्होंने पूर्णजाग्रत अवस्था में देखा... सुना और परखा।

मनुस्मृति में श्लोक (II.6) के माध्यम से कहा गया है कि वेद ही सर्वोच्च और प्रथम प्राधिकृत है... और, वेद किसी भी प्रकार के ऊँच-नीच, जात-पात, महिला-पुरुष आदि के भेद को नहीं मानते।

ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं..... जिनमें से लगभग 30 नाम महिला ऋषियों के हैं।

जन्म के आधार पर जाति का विरोध ऋग्वेद के पुरुष-सुक्त (X.90.12), व श्रीमद्भगवत गीता के श्लोक (IV.13), (XVIII.41) में मिलता है।

श्लोक : श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते।
तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोद्वैधे स्मृतिर्त्वरा॥
अर्थात : जहाँ कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहाँ वेद की बात की मान्य होगी।-वेद व्यास

प्रकाश से अधिक गतिशील तत्व अभी खोजा नहीं गया है..... और, न ही मन की गति को मापा गया है।

परन्तु.... हमारे ऋषि-मुनियों ने..... मन से भी अधिक गतिमान ....किंतु, अविचल का साक्षात्कार किया और उसे 'वेद वाक्य' या 'ब्रह्म वाक्य' बना दिया।

अथ वेद कथा....



फलित ज्योतिष सीखें :

किस भाव से क्या पहचानें कुंडली के 12 भाव : एक परिचय

* प्रथम भाव से जातक की शारीरिक स्थिति, स्वास्थ्य, रूप, वर्ण, चिह्न, जाति, स्वभाव, गुण, आकृति, सुख, दु:ख, सिर, पितामह तथा शील आदि का विचार करना चाहिए।

* द्वितीय भाव से धनसंग्रह, पारिवारिक स्थिति, उच्च विद्या, खाद्य-पदार्थ, वस्त्र, मुखस्थान, दाहिनी आंख, वाणी, अर्जित धन तथा स्वर्णादि धातुओं का संचार होता है।

* तृतीय भाव से पराक्रम, छोटे भाई-बहनों का सुख, नौकर-चाकर, साहस, शौर्य, धैर्य, चाचा, मामा तथा दाहिने कान का विचार करना चाहिए।

* चतुर्थ भाव से माता, स्थायी संपत्ति, भूमि, भवन, वाहन, पशु आदि का सुख, मित्रों की स्थिति, श्वसुर तथा हृदय स्थान का विचार करना चाहिए।

* पंचम भाव से विद्या, बुद्धि, नीति, गर्भ स्थिति, संतान, गुप्त मंत्रणा, मंत्र सिद्धि, विचार-शक्ति, लेखन, प्रबंधात्मक योग्यता, पूर्व जन्म का ज्ञान, आध्यात्मिक ज्ञान, प्रेम-संबंध, इच्छाशक्ति आदि का विचार करना चाहिए।

* षष्ठ भाव से शत्रु, रोग, ऋण, चोरी अथवा दुर्घटना, काम, क्रोध, मद, मोह, लोभादि विकार, अपयश, मामा की स्थिति, मौसी, पापकर्म, गुदा स्थान तथा कमर संबंधी रोगों का विचार करना चाहिए।

* सप्तम भाव से स्त्री एवं विवाह सुख, स्त्रियों की कुंडली में पति का विचार, वैवाहिक सुख, साझेदारी के कार्य, व्यापार में हानि, लाभ, वाद-विवाद, मुकदमा, कलह, प्रवास, छोटे भाई-बहनों की संतानें, यात्रा तथा जननेन्द्रिय संबंधी गुप्त रोगों का विचार करना चाहिए।

* अष्टम भाव से मृत्यु तथा मृत्यु के कारण, आयु, गुप्त धन की प्राप्ति, विघ्न, नदी अथवा समुद्र की यात्राएं, पूर्व जन्मों की स्मृति, मृत्यु के बाद की स्थिति, ससुराल से धनादि प्राप्त होने की स्थिति, दुर्घटना, पिता के बड़े भाई तथा गुदा अथवा अण्डकोश संबंधी गुप्त रोगों का विचार करना चाहिए।

* नवम भाव से धर्म, दान, पुण्य, भाग्य, तीर्थयात्रा, विदेश यात्रा, उत्तम विद्या, पौत्र, छोटा बहनोई, मानसिक वृत्ति, मरणोत्तर जीवन का ज्ञान, मंदिर, गुरु तथा यश आदि का विचार करना चाहिए।

* दशम भाव से पिता, कर्म, अधिकार की प्राप्ति, राज्य प्रतिष्ठा, पदोन्नति, नौकरी, व्यापार, विदेश यात्रा, जीविका का साधन, कार्यसिद्धि, नेता, सास, आकाशीय स्थिति एवं घुटनों का विचार करना चाहिए।

* एकादश भाव से आय, बड़ा भाई, मित्र, दामाद, पुत्रवधू, ऐश्वर्य-संपत्ति, वाहनादि के सुख, पारिवारिक सुख, गुप्त धन, दाहिना कान, मांगलिक कार्य, भौतिक पदार्थ का विचार करना चाहिए।


* द्वादश भाव से धनहानि, खर्च, दंड, व्यसन, शत्रु पक्ष से हानि, बायां नेत्र, अपव्यय, गुप्त संबंध, शय्या सुख, दु:ख, पीड़ा, बंधन, कारागार, मरणोपरांत जीव की गति, मुक्ति, षड्यंत्र, धोखा, राजकीय संकट तथा पैर के तलुए का विचार करना चाहिए।


प्राचीन मंत्रों से जानिए कैसे होते हैं 12 राशियों के जातक बारह राशियों के जातक का स्वरूप



विश्व की ज्योतिषीय गणना में नवग्रहों और बारह राशियों का उल्लेख है। सभी ग्रहों के राजा सूर्य हैं। अन्य ग्रह हैं- चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु।


बारह राशियां हैं- मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन। कुंडली के जिस अंक के साथ में चन्द्रमा होता है, उसी अंक पर आने वाली राशि जातक की राशि होती है।

1. मेष राशि के जातक का स्वरूप

मेष राशि में चन्द्रमा के विद्यमान होने पर जातक के लिए कहा गया है-

लोलनेत्र: सदा रोगी धर्मार्थकृतनिश्चय:।
पृथुघ्ङ: कृतघ्नश्च निष्पापो राजपूजित:।।
कामिनीहृदयानन्दो दाता भीतो जलादपि।
चण्डकर्मा मृदुश्चान्ते मेषराशौ भवेन्तर:।।

(मानसागरी 1। 266-267)

अर्थात् जिस जातक का जन्म मेष राशि के चन्द्रमा में होता है, वह चंचल नेत्रों वाला, प्राय: रोगी, धर्म और धन दोनों का मूल्यांकन करने वाला, भारी जंघाओं वाला, कृतघ्न, पापरहित, राजा को मान्य, कामिनियों को आनंदित करने वाला, दानी, जल से भयभीत रहने वाला और कठोर कार्य करने वाला परंतु अंत में विनम्र होता है।

2. वृष राशि के जातक का स्वरूप

जिस जातक का जन्म वृष राशि में विद्यमान चन्द्र में होता है, उसका फल इस प्रकार बताया गया है-

भोगी दाता शुचिर्दशो महासत्त्वों महाबल:।
धनी विलासी तेजस्वी सुमित्रश्च वृषे भवेत्।।

(मानसागरी 1। 268)

अर्थात वृष राशि स्थित चन्द्र में जन्म लेने वाला जातक भोगी, दानी, पवित्र, कुशल, सत्त्वसंपन्न, महान् बली, धनवान, भोग-विलासरत, तेजस्वी और अच्छे मित्रों वाला होता है।

3. मिथुन राशि के जातक का स्वरूप

मिष्टवाक्यो लोलदृष्टिर्दयालुर्मैथुनप्रिय:।
गान्धर्ववित्कण्ठरोगी कीर्तिभागी धनी गुणी।।
गोरो दीर्घ: पटुर्वक्ता मेधावी च दृढ़व्रत:।
समर्थो न्यायवादी च जायते मिथुने नर:।।

(मानसागरी 1। 269-270)

अर्थात मिथुन राशि में जन्म लेने वाला जातक मृदुभाषी, चंचल दृष्टि, दयालु, कामुक, संगीतप्रेमी, कंठ रोगी, यशस्वी, धनी, गुणवान, गौरवर्ण एवं लंबे शरीर वाला, कार्यकुशल, वक्ता, बुद्धिमान, दृढ़ संकल्प, सभी प्रकार से समर्थ और न्यायप्रिय होता है।

4. कर्क राशि के जातक का स्वरूप

कार्यकारी धनी शूरो धर्मिष्ठो गुरुवत्सल:।
शिरोरोगी महाबुद्धि: कृशाङ्ग: कृत्यवित्तम:।।
प्रवासशील: कोपान्धोऽबलो दु:खी सुमित्रक:।
अनासक्तो गृहे वक्र: कर्कराशौ भवेन्नर:।।

(मानसागरी 1। 271-272)

अर्थात चन्द्र के कर्क राशि में होने पर जो जातक जन्म लेता है, वह जातक कार्य करने वाला, धनवान, शूर, धार्मिक, गुरु का प्रिय, सिर से रोगी, अतीव बुद्धिमान, दुर्बल शरीर वाला, सभी कार्यों का ज्ञाता, प्रवासी, भयंकर क्रोधी, निर्बल, दु:खी, अच्छे मित्रों वाला, गृह में अरुचि रखने वाला तथा कुटिल होता है।

5. सिंह राशि के जातक का स्वरूप

क्षमायुक्त: क्रियाशक्तो मद्यमांसरत: सदा।
देशभ्रमणशीलश्च शीतभीत: सुमित्रक:।।
विनयी शीघ्रकोपी च जननीपितृवल्लभ:।
व्यसनी प्रकटो लोके सिंहराशौ भवेन्नर:।।

(मानसागरी 1। 273-274)

अर्थात सिंह राशि में चन्द्र के विद्यमान होने पर जातक क्षमाशील, कार्य में समर्थ, मद्य-मांस में सदैव आसक्त, देश में भ्रमण करने वाला, शीत से भयभीत, अच्छे मित्रों वाला, विनयशील, शीघ्र क्रुद्ध होने वाला, माता-पिता का प्रिय, व्यसनी (नशा आदि बुरे कार्यों का अभ्यस्त) तथा संसार में प्रख्यात होता है।

6. कन्या राशि के जातक का स्वरूप

विलासी सुजनाह्लादी सुभगो धर्मपूरित:।
दाता दक्ष: कविर्वृद्धो वेदमार्गपरायण:।।
सर्वलोकप्रियो नाट्यगान्धर्वव्यसने रत:।
प्रवासशील: स्त्रीदु:खी कन्याजातो भवेन्नर:।।

(मानसागरी 1। 275-276)

कन्या राशि में उत्पन्न व्यक्ति विलासी, सज्जनों को आनंदित करने वाला, सुंदर, धर्म से परिपूर्ण, दानी, निपुण, कवि, वृद्ध, वैदिक मार्ग का अनुगामी, सभी लोगों का प्रिय, नाटक, नृत्य और गीत की धुन में आसक्त, प्रवासी एवं स्त्री से दु:खी होता है।

7. तुला राशि के जातक का स्वरूप

अस्थानरोषणो दु:खी मृदुभाषी कृपान्वित:।
चलाक्षश्चललक्ष्मीको गृहमध्येऽतिविक्रम:।।
वाणिज्यदक्षो देवानां पूजको मित्रवत्सल:।
प्रवासी सुहृदामिष्टस्तुलाजातो भवेन्नर:।।

(मानसागरी 1। 277-278)

तुला राशि में उत्पन्न व्यक्ति अकारण क्रोध करने वाला, दु:खी, मधुरभाषी, दयालु, चंचल नेत्रों एवं अस्थिर धन वाला, घर में ही पराक्रम दिखाने वाला, व्यापार में चतुर, देवताओं का पूजन करने वाला, मित्रों के प्रति दयालु, परदेशवासी तथा मित्रों का प्रिय पात्र होता है।

8. वृश्चिक राशि के जातक का स्वरूप

बालप्रवासी क्रूरात्मा शूर: पिङ्गललोचन:।
परदाररतो मानी निष्ठुर: स्वजने भवेत्।।
साहसप्राप्तलक्ष्मीको जनन्यामपि दुष्टधी:।
धूर्तश्चौरकलारम्भी वृश्चिके जायते नर:।।

(मानसागरी 1। 279-280)

वृश्चिक राशि में उत्पन्न व्यक्ति बाल्यावस्था से ही परदेश में रहने वाला, क्रूर स्वभाव वाला, शूर, पीले नेत्रों वाला, परस्त्री में आसक्त, अभिमानी, अपने भाई-बंधुओं के प्रति निर्दयी, अपने साहस से धन प्राप्त करने वाला, अपनी माता के प्रति भी दुष्ट बुद्धि वाला, धूर्तता और चोरी की कला का अभ्यास करने वाला होता है।

9. धनु राशि के जातक का स्वरूप

शूर: सत्यधिया युक्त: सात्त्विको जननन्दन:।
शिल्पविज्ञानसम्पन्नो धनाढ्यो दिव्यभार्यक:।।
मानी चरित्रसम्पन्नो ललिताक्षरभाषक:।
तेजस्वी स्थूलदेहश्च धनुर्जात: कुलान्तक:।।

(मानसागरी 1। 281-282)

यदि धनुराशिगत जन्म हो तो शूर, सत्य बुद्धि से युक्त, सात्त्विक, मनुष्यों के हृदय को आनंदित करने वाला, शिल्प (मूर्तिकला)-विज्ञान से संपन्न, धन से युक्त, सुन्दर स्त्री वाला, अभिमानी, चरित्रवान, सुंदर शब्दों को बोलने वाला, तेजस्वी, मोटे शरीर वाला तथा कुल का नाशक होता है।

10. मकर राशि के जातक का स्वरूप

कुले नष्टो वश: स्त्रीणां पण्डित: परिवादक:।
गीतज्ञो ललिताग्राह्यो पुत्राढ्यो मातृवत्सल:।।
धनी त्यागी सुभृत्यश्च दयालुर्बहुबान्धव:।
परिचिन्तितसौख्यश्च मकरे जायते नर:।।

(मानसागरी 1। 283-284)

मकर राशि में जन्म लेने वाला व्यक्ति अपने कुल में नष्ट (सबसे हीन अवस्था वाला), स्त्रियों के वशीभूत, विद्वान, परनिंदक, संगीतज्ञ, सुंदर स्त्रियों का प्रिय पात्र, पुत्रों से युक्त, माता का प्रिय, धनी, त्यागी, अच्छे नौकरों वाला, दयालु, बहुत भाइयों (परिवार) वाला तथा सुख के लिए अधिक चिंतन करने वाला होता है।

11. कुंभ राशि के जातक का स्वरूप

दातालस: कृतज्ञश्च गजवाजिधनेश्वर:।
शुभदृष्टि: सदा सौम्यो धनविद्याकृतोद्यम:।।
पुण्याढ्य स्नेहकीर्तिश्च धनभोगी स्वशक्तित:।
शालूरकुक्षिर्निर्भीक: कुम्भे जातो भवेन्नर:।।

(मानसागरी 1। 285-286)

यदि कुंभ राशि में जन्म हो तो मनुष्य दानी, आलसी, कृतज्ञ, हाथी, घोड़ा और धन का स्वामी, शुभ दृष्टि एवं सदैव कोमल स्वभाव वाला, धन और विद्या हेतु प्रयत्नशील, पुत्र से युक्त, स्नेहयुक्त, यशस्वी, अपनी शक्ति से धन का उपभोग करने वाला तथा निर्भीक होता है।

12. मीन राशि के जातक का स्वरूप

गम्भीरचेष्टित शूर: पटुवाक्यो नरोत्तम:।
कोपन: कृपणो ज्ञानी गुणश्रेष्ठ: कुलप्रिय:।।
नित्यसेवी शीघ्रगामी गान्धर्वकुशल: शुभ:।
मीनराशौ समुत्पन्नौ जायते बन्धुवत्सल:।।

(मानसागरी 1। 287-288)

जिसका जन्म मीन राशि में होता है, वह गंभीर चेष्टा करने वाला, शक्तिशाली, बोलने में चतुर, मनुष्यों में श्रेष्ठ, क्रोधी, कृपण, ज्ञानसंपन्न, श्रेष्ठ गुणों से युक्त, कुल में प्रिय, नित्य सेवाभाव रखने वाला, शीघ्रगामी, नृत्य-गीतादि में कुशल, शुभ दर्शन वाला तथा भाई-बंधुओं का प्रेमी होता है।


ग्रहों से होने वाली परेशानियां इस प्रकार हैं


                                    ग्रहों से होने वाली परेशानियां इस प्रकार हैं-
                         ********************************************
सूर्य - सरकारी नौकरी या सरकारी कार्यों में परेशानी, सिर दर्द, नेत्र रोग, हृदय रोग, अस्थि रोग, चर्म रोग, पिता से अनबन आदि।
चंद्र - मानसिक परेशानियां, अनिद्रा, दमा, कफ, सर्दी, जुकाम, मूत्र रोग, स्त्रियों को मासिक धर्म, निमोनिया।
मंगल- अधिक क्रोध आना, दुर्घटना, रक्त विकार, कुष्ठ रोग, बवासीर, भाइयों से अनबन आदि।
बुध - गले, नाक और कान के रोग, स्मृति रोग, व्यवसाय में हानि, मामा से अनबन आदि।
गुरु - धन व्यय, आय में कमी, विवाह में विलम्ब, संतान बाधा, उदर विकार, गठिया, कब्ज, गुरु व देवता में अविश्वास आदि।
शुक्र - जीवन साथी के सुख में बाधा, प्रेम में असफलता, भौतिक सुखों में कमी व अरुचि, नपुंसकता, मधुमेह, धातु व मूत्र रोग आदि।
शनि - वायु विकार, लकवा, कैंसर, कुष्ठ रोग, मिर्गी, पैरों में दर्द, नौकरी में परेशानी आदि।
राहु - त्वचा रोग, कुष्ठ, मस्तिष्क रोग, भूत प्रेत वाधा, दादा से परेशानी आदि।
केतु - नाना से परेशानी, भूत-प्रेत, जादू टोने से परेशानी, रक्त विकार, चेचक आदि।
इस प्रकार ग्रहों के कारकत्व को ध्यान में रखते हुए उपाय करना चाहिए।

जन्मपत्री


जन्मपत्री में प्राणियों की जन्मकालिक ग्रहस्थिति से जीवन में होनेवाली शुभ अथवा अशुभ घटनाओं का निर्देश किया जाता है। जन्मपत्री का स्वरूप, फलादेश विधि और संसार के अन्य देशों एवं संस्कृतियों में उसके स्वरूप तथा शुभाशुभ निर्देश की प्रणालियों में बहुत भिन्नता पायी जाती है।
परिचय
आकाश में दो प्रकार के प्रकाश पिंड दिखाई देते हैं। प्रथम वे जो स्थिर दिखाई पड़ते है, नक्षत्र कहलाते हैं। दूसरे वे जो नक्षत्रों के बीच सदा अपना स्थान परिवर्तित करते रहते हैं, ग्रह कहलाते हैं। पृथ्वी अपनी धुरी पर प्रति चौबीस घंटों में पश्चिम से पूर्व की ओर घूम जाती है जिससे सभी ग्रह और नक्षत्र पूर्व में उदित होकर पश्चिम में जाते तथा अस्त होते दिखाई पड़ते है। किंतु प्रति दिन ध्यान से देखने पर पता चलता है कि ग्रह नित्य आकाशीय पिंडों की यात्रा के विपरीत, पश्चिम से पूर्व की ओर चला करते हैं। इस प्रकार सूर्य जिस मार्ग से चलकर वर्ष में नक्षत्रचक्र की एक परिक्रमा पूरी करता है, उसे क्रांतिवृत्त (ecliptic) कहते है। प्राचीन ज्योतिषियों ने इसी क्रांतिवृत्त का बारह भागकर उन्हें राशि (sign) की संज्ञा दी है। इनमें कुछ तारापुंजों से जीवधारियों जैसी आकृतियाँ बन जाती हैं। राशियों के नाम उन्हीं जीवों के अनुसार- मेष, वृष, मिथुन, कर्क (केकड़ा), सिंह, कन्या, तुला, (तराजू), बृश्चिक (बिच्छू), धनु (धनुष) मकर (घड़ियाल), कुंभ (घड़ा), मीन (मछली) रखे गए हैं।
लग्न और भाव
पृथ्वी की दैनिक गति के कारण बारह राशियों का चक्र (zodiac) चौबीस घंटों में हमारे क्षितिज का एक चक्कर लगा आता है। इनमें जो राशि क्षितिज में लगी होती है उसे लग्न कहते हैं। यहाँ लग्न और इसके बाद की राशियाँ तथा सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु आदि ग्रह जन्मपत्री के मूल उपकरण हैं। लग्न से आरंभकर इन बारह राशियाँ को द्वाद्वश भाव कहते हैं। इनमें लग्न शरीरस्थानीय हैं। शेष भाव शरीर से संबंधित वस्तुओं के रूप में गृहीत हैं। जैसे लग्न (शरीर), धन, सहज (बंधु), सुख, संतान, रिपु, जाया, मृत्यु, धर्म, आय (लाभ), और व्यय (खर्च) ये 12 भावों के स्वरूप हैं।
इन भावों की स्थापना इस ढंग से की गई है कि मनुष्य के जीवन की संपूर्ण आवश्यकताएँ इन्हीं में समाविष्ट हो जाती हैं। इनमें प्रथम (लग्न), चतुर्थ (सुख), सप्तम (स्त्री) और दशम् (व्यापार) इन चार भावों को केंद्र मुख्य कहा गया है।
वस्तुत: आकाश में इनकी स्थिति ही इस मुख्यता का कारण है। लग्न पूर्व क्षितिज और क्रांति वृत्त का संयोग बिंदु कहा गया है, सप्तम भी पश्चिम क्षितिज और क्रांति वृत्त का संयोग बिंदु ही है। ऐसे ही दक्षिणोत्तर वृत्त और क्रांतिवृत्त का वह संयोग बिंदु जो हमारे क्षितिज से नीचे है चतुर्थ भाव तथा क्षितिज से ऊपर हमारे शिर की ओर (दक्षिणोत्तर वृत्त और क्रांति वृत्त) का संयोग बिंदु दशम भाव कहलाता है। इन्हीं केंद्रों के दोनों और जीवनसंबंधी अन्य आवश्यकताओं एवं परिणामों को बतलानेवाले स्थान हैं। लग्न (शरीर) के दाहिनी ओर व्यय है, बाईं ओर धन का घर है। चौथे (मुख) के दाहिनी और बंधु और पराक्रम हैं, बाईं ओर संतान और विद्या हैं। सप्तम स्थान (स्त्री) के दाहिनी ओर शत्रु और व्याधि हैं तो बाईं ओर शत्रु और व्याधि हैं तो बाईं ओर मृत्यु है। दशम (व्यवसाय) के दाहिनी ओर भाग्य और बाईं ओर आय (लाभ) है।
जन्मपत्री द्वारा प्राणियों के जीवन में घटित होनेवाले परिणामों के तारतम्यों को बतलाने के लिए इन बारह राशियों के स्वामी माने गए सात ग्रहों में परस्पर मैत्री, शत्रुता और तटस्थता की कल्पना की गई है और इन स्वाभाविक संबंधों में भी विशेषता बतलाने के लिए तात्कालिक मैत्री, शत्रुता और तटस्थता की कल्पना द्वारा अधिमित्र, अधिशत्रु आदि कल्पित किए गए है। इसी प्रकार ग्रहों की ऊँचीनीची राशियाँ भी उपर्युक्त प्रयोजन के लिए ही कल्पित की गई हैं (क्योंकि फलित के ये उच्च वास्तविक उच्चों से बहुत दूर हैं)। इन कल्पनाओं के अनुसार किसी भाव में स्थित ग्रह यदि अपने गृह में हो तो भावफल उत्तम, मित्र के गृह में मध्यम और शत्रु के गृह में निम्न कोटि का होगा। यदि ऐसे ही ग्रह अपने उच्च में हों तो भावफल उत्तम और नीच में हो तो निकृष्ट होगा। इसके मध्य में अनुपात से फलों का तारतम्य लाना होता है। तात्कालिक मैत्री, शत्रुता, समता आदि से स्वाभाविक मैत्री आदि के द्वारा निर्दिष्ट शुभाशुभ परिणामों में और अधिकता न्यूनता करनी होती है।
जन्मपत्री में मंगल की राशि मेष और बृश्चिक तथा मकर उच्च है। वृष और तुला शुक्र की राशि तथा मीन उच्च है। मिथुन और कन्या बुध की अपनी राशि तथा कन्या ही उसका उच्च भी है। कर्क चंद्रमा की राशि तथा वृष उच्च है। सिंह सूर्य की राशि तथा मेष उच्च है। धनु और मीन बृहस्पति की अपनी राशि तथा कर्क उच्च है। ऐसे ही मकर और कुंभ का स्वामी शनि तथा तुला उसका उच्च है। जन्मपत्री में द्वादश भावों को किस प्रकार अंकित किया जाता है, यह जानने के लिए प्रस्तुत कोष्ठक द्रष्टव्य हैं।
हिंदू और यूनानी दोनों प्रणालियों में भावों की कल्पना एक सी किंतु 6, 11, और 12 भावों में भेद स्पष्ट है। यद्यपि हिंदू प्रणाली में झूठे भाव स शत्रु और रोग दोनों का विचार किया जाता है किंतु उनमें शत्रु भाव ही मुख्य है। यूनानी ज्योतिष में ग्यारहवाँ मित्र भाव और बारहवाँ त्रुभाव है। हिंदू ज्योतिष में 11वाँ आय और बारहवाँ व्यय है।
जन्मकुंडली में ग्रहों के संबंध में अन्य कल्पनाएँ प्राणिवर्ग के पारस्परिक संबंधों और अन्य संभाव्य परिस्थितियों पर आधारित है जिनके द्वारा प्रस्तुत किए गए फलादेश प्राणियों पर घटित होनेवाली क्रियाओं के अनुरूप ही होते हैं। ग्रहों की स्वाभाविक मैत्री, विरोध और तटस्थता तथा तात्कालिक विद्वेष, सौहार्द्र और समभाव की मान्यताएँ जन्मकुंडली के लिए आधारशिला के रूप में गृहीत हैं। इसी प्रकार सूर्य आदि सात ग्रहों को क्रमश: आत्मा, मन, शक्ति, वाणी, ज्ञान, काम, दु:ख, तथा मेष आदि बारह राशियों की क्रम से शिर, मुख, उर (वक्ष) हृदय, उदर, कटि, वस्ति, लिंग, उरु, घुटना, जंघा और चरण आदि की कल्पनाएँ, प्राणियों की मानसिक अवस्था तथा शारीरिक विकृति, चिह्न आदि को बताने के लिए की गई हैं। ग्रहों के श्वेत आदि वर्ण, ब्राह्मण आदि जाति, सौम्य, क्रूर, आदि प्रकृति की मान्यताएँ भी प्राणिवर्ग के रूप, रंग, जाति और मनोवृत्ति के परिचय के लिए ही हैं। चोरी गई वस्तु के परिज्ञान के लिए इनका सफल प्रयोग प्रसिद्ध है।
ग्रह दशा
प्राणियों के समस्त जीवनकाल के भिन्न-भिन्न अवयव भिन्न-भिन्न रूपों में प्रभावित बतलानेवाले ग्रहों की दशाओं और अंतर्दशाओं के परिणाम हैं। जीवन में कौन-सा समय सुखदायक तथा कौन-सा अरिष्टप्रद होगा, भाग्योदय कब होगा, माता, पिता, बंधु, संतति, स्त्री आदि का सुख कब कैसा रहेगा, विवाह कब होगा, कौन-सी ग्रहदशा जीवन में समृद्धि उड़ेल देगी और किस ग्रह की दशा में दर-दर की खाक छाननी पड़ेगी, सबसे बढ़कर किस समय इस संसार को सदा के लिए छोड़ देना होगा इत्यादि सभी बातों का समय, ग्रहों की दशाओं और अंतर्दशाओं से ही सूचित किया जाता है।
गणना क्रम
ग्रह दशा की गणना के लिए जन्मकालसंबंधी चंद्रमा का नक्षत्र प्रधान है। कृत्तिका से गणना करके नौ नौ नक्षत्रों में क्रमश: सूर्य, चंद्र, भौम, राहु, गुरु, शनि, बुध, केतु और शुक्र की दशाओं का भोगकाल 6,10,7,18,16 19,17,7,20 वर्षों के क्रम से 120 वर्ष माना गया है। इस प्रकार कृत्तिका से जन्मकालिक चंद्रमा के नक्षत्र तक की संख्या में 9 का भाग देकर शेष संख्या जिस ग्रह की होगी उसी की दशा जन्मकाल में मानी जाएगी तथा जन्म समय और नक्षत्र के पंचांगीय भोग काल से ग्रह की दशा के जन्म काल से पहले व्यतीत और जन्म के बाद के भोग काल का निर्णय करके भावी फलादेश को प्रस्तुत किया जाता है। यदि ग्रह कुंडली में अपने गृह या मित्र के गृह में हो अथवा उच्च का हो तो वह जिस भाव का स्वामी होगा, उसका फल उत्तम होगा तथा शत्रु के गृह में अथवा नीच राशि में उसके स्थित होने पर फल निकृष्ट होगा। अब प्रश्न उठता है कि सभी गणनाएँ तो अश्विनी नक्षत्र से आरंभ की जाती हैं। फिर ग्रहदशा की गणना कृत्तिका से क्यों की जाती है। तथ्य यह है कि हमारा ग्रहदशासंबंधी फलादेश तब से चला आता है जब हमारी नक्षत्र गणना कृत्तिका से आरंभ होती थी। महर्षि गर्ग ने वैदिककाल में दो स्वतंत्र नक्षत्र गणनाओं का उल्लेख किया है- एक कृत्तिकादि और दूसरी धनिष्ठादि। गर्ग वाक्य है कि- "तेषां सर्वेषां नक्षत्राणां कर्मसु कृत्तिका प्रथममाचचक्षते श्रविष्ठतु संख्याया: पूर्वा लग्नानाम्" अर्थात् सभी नक्षत्रों में अग्न्याधान आदि कर्मों में कृत्तिका की गणना प्रथम कही जाती है किंतु धनिष्ठा क्षितिज में लगनेवाले नक्षत्रों में प्रथम है। रहस्य यह है कि जिस समय कृत्तिका (कचपिचिया) का तारापुंज विषवद्वृत्त (Equater) में था उस समय कृत्तिकादि नक्षत्र गणना का आरंभ हुआ। जब उत्तरायण का आरंभ धनिष्ठा पर होता था धनिष्ठादि गणना का आरंभ हुआ। तैत्तिरीय ब्राह्मण में लिखा है कि "मुखं वा एतन्नक्षाणां यत्कृत्तिका एताह वै प्राच्यै दिशो न च्यवंते" अर्थात् कृत्तिका सब नक्षत्रों में प्रथम है। यह उदय काल में पूर्व दिशा से नहीं हटती। यह निश्चय है कि जो ग्रह या नक्षत्र विषुवद्वृत्त में होता है उसी का उदय पूर्व बिंदु में पृथ्वी तल पर सर्वत्र होता है। कृत्तिका की आकाशीय स्थिति के अनुसार गणना करने पर यह समय लगभग 5100 वर्ष पूर्व का सिद्ध होता है। अत: हमारे फलादेश की ग्रहदशा पद्धति इतनी प्राचीन तो है ही।
वर्षफल
हमारी जन्मकुंडली की दशा अंतर्दशाओं के क्रम से प्रभावित होकर अरब देशवासियों ने वर्षफल की एक नई प्रणाली प्रारंभ की जिसे 'ताजिक' कहते हैं। इसमें प्राणी के जन्म काल से सौर वर्ष की पूर्ति के समय का लग्न लाकर एक वर्ष के अंदर होनेवाले शुभाशुभों का विचार किया जाता है। इसमें 16 योगों की प्रधानता है जिनमें लाभ, हानि तथा शारीरिक स्थिति का विचार किया जाता है। इन 16 योगों के नाम अरबी भाषा के ही हैं संस्कृत ग्रंथों में उनके नाम उच्चारण के अनुसार कुछ परिवर्तित हो गए है यथा, इक़बाल (इक्कबाल) अशराफ (इसराफ़), इत्तसाल (इत्त्थसाल) आदि।

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हिन्दुओं की समय निर्धारण पद्धति, महत्वपूर्ण जानकारी



कलयति सर्वाणि भूतानि : अर्थात काल संपूर्ण ब्रह्मांड को, सृष्टि को खा जाता है। इस काल का सूक्ष्मतम अंश परमाणु है और महानतम अंश ब्रह्मा। जैसे आधुनिक काल के अनुसार सूक्ष्मतम अंश सेकंड है और महानतम अंश शताब्दी।

ज्योतिर्विदाभरण में अनुसार कलियुग में 6 व्यक्तियों ने संवत चलाए। यथा- युधिष्ठर, विक्रम, शालिवाहन, विजयाभिनन्दन, नागार्जुन, कल्की। इससे पहले सप्तऋषियों ने संवत चलाए थे जिनके आधार पर ही बाद के लोगों ने अपडेट किया। इसमें से सबसे ज्यादा सही विक्रम है। कालगणना में क्रमश: प्रहर, दिन-रात, पक्ष, अयन, संवत्सर, दिव्यवर्ष, मन्वन्तर, युग, कल्प और ब्रह्मा की गणना की जाती है।

चक्रीय अवधारणा के अतर्गत ही हिन्दुओं ने काल को कल्प, मन्वंतर, युग (सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग) आदि में विभाजित किया जिनका अविर्भाव बार-बार होता है, जो जाकर पुन: लौटते हैं। चक्रीय का अर्थ सिर्फ इतना ही है कि सूर्य उदय और अस्त होता है और फिर से वह उदय होता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि समय भी चक्रीय है। सिर्फ घटनाक्रम चक्रीय है। इसकी पुनरावृत्ति होती रहती है लेकिन पुनरावृत्ति में भी वह पहले जैसी नहीं होती है।

चक्रीय काल-अवधारणा के अंतर्गत आज ब्रह्मा की आयु के दूसरे खंड में, श्वेतावाराह कल्प में, वैवस्वत मन्वंर में अट्ठाईसवां कलियुग चल रहा है। इस कलियुग की समाप्ति के पश्चात चक्रीय नियम में पुन: सतयुग आएगा। हिन्दू कालगणना के अनुसार धरती पर जीवन की शुरुआत आज से लगभग 200 करोड़ वर्ष पूर्व हुई थी।

यदि दुनिया में कोई-सा वैज्ञानिक कैलेंडर या समय मापन-निर्धारण की पद्धति है तो वह है भारत के प्राचीन वैदिक ऋषियों की पद्धति। इसी पद्धति को ईरानी और यूनानियों ने अपनाया और इसे ही बाद में अरब और मिस्र के वासियों ने अपनाया। किंतु कालांतर में अन्य देशों में बदलते धर्म और संस्कृतियों के प्रचलन ने इसके स्वरूप में परिवर्तन कर दिया गया। उस काल में दुनियाभर के कैलेंडर में मार्च का महीना प्रथम महीना होता था, लेकिन उन सभी कैलेंडरों को हटाकर आजकल अंग्रेजी कैलेंडर प्रचलन में है। अंग्रेजों ने लगभग पूरी दुनिया पर राज किया। ऐसे में उन्होंने अपनी भाषा, धर्म, संस्कृति सहित ईसा के कैलेंडर को भी पूरी दुनिया पर लाद दिया।

वैदिक ऋषियों ने इस तरह का कैलेंडर या पंचांग बनाया, जो पूर्णत: वैज्ञानिक हो। उससे धरती और ब्रह्मांड का समय निर्धारण किया जा सकता हो। धरती का समय निर्माण अर्थात कि धरती पर इस वक्त कितना समय बीत चुका है और बीत रहा है और ब्रह्मांड अर्थात अन्य ग्रहों पर उनके जन्म से लेकर अब तक कितना समय हो चुका है- यह निर्धारण करने के लिए उन्होंने एक सटीक समय मापन पद्धति विकसित की थी। आश्चर्य है कि आज के वैज्ञानिक यह कहते हैं कि ऋषियों की यह समय मापन पद्धति आज के खगोल विज्ञान से मिलती-जुलती है, जबकि उन्हें कहना यह चाहिए कि ऋषियों ने हमसे हजारों वर्ष पहले ही एक वैज्ञानिक समय मापन पद्धति खोज ली थी।

ऋषियों ने इसके लिए सौरमास, चंद्रमास और नक्षत्रमास की गणना की और सभी को मिलाकर धरती का समय निर्धारण करते हुए संपूर्ण ब्रह्मांड का समय भी निर्धारण कर उसकी आयु का मान निकाला। जैसे कि मनुष्य की आयु प्राकृतिक रूप से 120 वर्ष होती है उसी तरह धरती और सूर्य की भी आयु निर्धारित है। जो जन्मा है वह मरेगा। ऐसे में वैदिक ऋषियों की समय मापन की पद्धति से हमें जहां समय का ज्ञान होता है वहीं हमें सभी जीव, जंतु, वृक्ष, मानव, ग्रह और नक्षत्रों की आयु का भी ज्ञान होता है।

ऋषियों ने सूक्ष्मतम से लेकर वृहत्तम माप, जो सामान्य दिन-रात से लेकर 8 अरब 64 करोड़ वर्ष के ब्रह्मा के दिन-रात तक की गणना की है, जो आधुनिक खगोलीय मापों के निकट है। यह गणना पृथ्वी व सूर्य की उम्र से भी अधिक है तथा ऋषियों के पास और भी लंबी गणना के माप हैं। आओ जानते हैं इस गणना का रहस्य...

युगमान- 4,32,000 वर्ष में सातों ग्रह अपने भोग और शर को छोड़कर एक जगह आते हैं। इस युति के काल को कलियुग कहा गया। दो युति को द्वापर, तीन युति को त्रेता तथा चार युति को सतयुग कहा गया। चतुर्युगी में सातों ग्रह भोग एवं शर सहित एक ही दिशा में आते हैं।

वैदिक ऋषियों के अनुसार वर्तमान सृष्टि पंच मंडल क्रम वाली है। चन्द्र मंडल, पृथ्वी मंडल, सूर्य मंडल, परमेष्ठी मंडल और स्वायम्भू मंडल। ये उत्तरोत्तर मंडल का चक्कर लगा रहे हैं।

परमाणु समय की सबसे सूक्ष्मतम इकाई है। यहीं से समय की शुरुआत मानी जा सकती है। यह इकाई अति लघु श्रेणी की है। इससे छोटी कोई इकाई नहीं। आधुनिक घड़ी का कांटा संभवत: सेकंड का सौवां या 1000वां हिस्सा भी बताने की क्षमता रखता है। धावकों की प्रतियोगिता में इस तरह की घड़ी का इस्तेमाल किया जाता है। सेकंड के जितने भी हिस्से हो सकते हैं उसका भी 100वां हिस्सा परमाणु हो सकता है।

*1 परमाणु = काल की सबसे सूक्ष्मतम अवस्था
*2 परमाणु = 1 अणु
*3 अणु = 1 त्रसरेणु
*3 त्रसरेणु = 1 त्रुटि
*10 त्रुटि = 1 प्राण
*10 प्राण = 1 वेध
*3 वेध = 1 लव या 60 रेणु
*3 लव = 1 निमेष
*1 निमेष = 1 पलक झपकने का समय
*2 निमेष = 1 विपल (60 विपल एक पल होता है)
*3 निमेष = 1 क्षण
*5 निमेष = 2 सही 1 बटा 2 त्रुटि
*2 सही 1 बटा 2 त्रुटि = 1 सेकंड या 1 लीक्षक से कुछ कम।
*20 निमेष = 10 विपल, एक प्राण या 4 सेकंड
*5 क्षण = 1 काष्ठा
*15 काष्ठा = 1 दंड, 1 लघु, 1 नाड़ी या 24 मिनट
*2 दंड = 1 मुहूर्त
*15 लघु = 1 घटी=1 नाड़ी
*1 घटी = 24 मिनट, 60 पल या एक नाड़ी
*3 मुहूर्त = 1 प्रहर
*2 घटी = 1 मुहूर्त= 48 मिनट
*1 प्रहर = 1 याम
*60 घटी = 1 अहोरात्र (दिन-रात)
*15 दिन-रात = 1 पक्ष
*2 पक्ष = 1 मास (पितरों का एक दिन-रात)
*कृष्ण पक्ष = पितरों का एक दिन और शुक्ल पक्ष = पितरों की एक रात।
*2 मास = 1 ऋतु
*3 ऋतु = 6 मास
*6 मास = 1 अयन (देवताओं का एक दिन-रात)
*2 अयन = 1 वर्ष
*उत्तरायन = देवताओं का दिन और दक्षिणायन = देवताओं की रात।
*मानवों का एक वर्ष = देवताओं का एक दिन जिसे दिव्य दिन कहते हैं।
*1 वर्ष = 1 संवत्सर=1 अब्द
*10 अब्द = 1 दशाब्द
*100 अब्द = शताब्द
*360 वर्ष = 1 दिव्य वर्ष अर्थात देवताओं का 1 वर्ष।
जब भी पंडितजी कोई संकल्प कराते हैं तो निम्नलिखित संस्कृत वाक्य सदियों से बोला जा रहा है। इसमें यदि कुछ परिवर्तन होता है तो वह बस देश, प्रदेश, संवत्सरे, मासे और तिथि का ही परिवर्तन होता रहता है। यह संस्कृत वाक्य यह दर्शाता है कि इस वक्त कितना समय बीत चुका है।

ॐ अस्य श्री विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्राहृणां द्वितीये परार्धे श्वेत वाराह कल्पे वैवस्वतमन्वंतरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे कलिसंवते या युगाब्दे जम्बु द्वीपे, ब्रह्मावर्त देशे, भारत खंडे, मालवदेशे, अमुकसंवत्सरे, अयने, ऋतौ, मासे, पक्षे, तिथे, समये यथा जातके।

* 12,000 दिव्य वर्ष = एक महायुग (चारों युगों को मिलाकर एक महायुग)
सतयुग : 4000 देवता वर्ष (सत्रह लाख अट्ठाईस हजार मानव वर्ष)
त्रेतायुग : 3000 देवता वर्ष (बारह लाख छियानवे हजार मानव वर्ष)
द्वापरयुग : 2000 देवता वर्ष (आठ लाख चौसठ हजार मानव वर्ष)
कलियुग : 1000 देवता वर्ष (चार लाख ब्तीसहजतार मानव वर्ष)

* 71 महायुग = 1 मन्वंतर (लगभग 30,84,48,000 मानव वर्ष बाद प्रलय काल)
* चौदह मन्वंतर = एक कल्प।
* एक कल्प = ब्रह्मा का एक दिन। (ब्रह्मा का एक दिन बीतने के बाद महाप्रलय होती है और फिर इतनी ही लंबी रात्रि होती है)। इस दिन और रात्रि के आकलन से उनकी आयु 100 वर्ष होती है। उनकी आधी आयु निकल चुकी है और शेष में से यह प्रथम कल्प है।
* ब्रह्मा का वर्ष यानी 31 खरब 10 अरब 40 करोड़ वर्ष। ब्रह्मा की 100 वर्ष की आयु अथवा ब्रह्मांड की आयु- 31 नील 10 अरब 40 अरब वर्ष (31,10,40,00,00,00,000 वर्ष)
मन्वंतर की अवधि : विष्णु पुराण के अनुसार मन्वंतर की अवधि 71 चतुर्युगी के बराबर होती है। इसके अलावा कुछ अतिरिक्त वर्ष भी जोड़े जाते हैं। एक मन्वंतर = 71 चतुर्युगी = 8,52,000 दिव्य वर्ष = 30,67,20,000 मानव वर्ष।

मन्वंतर काल का मान : वैदिक ऋषियों के अनुसार वर्तमान सृष्टि पंच मंडल क्रम वाली है। चन्द्र मंडल, पृथ्वी मंडल, सूर्य मंडल, परमेष्ठी मंडल और स्वायम्भू मंडल। ये उत्तरोत्तर मंडल का चक्कर लगा रहे हैं।

सूर्य मंडल के परमेष्ठी मंडल (आकाश गंगा) के केंद्र का चक्र पूरा होने पर उसे मन्वंतर काल कहा गया। इसका माप है 30,67,20,000 (तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हजार वर्ष)। एक से दूसरे मन्वंतर के बीच 1 संध्यांश सतयुग के बराबर होता है अत: संध्यांश सहित मन्वंतर का माप हुआ 30 करोड़ 84 लाख 48 हजार वर्ष। आधुनिक मान के अनुसार सूर्य 25 से 27 करोड़ वर्ष में आकाश गंगा के केंद्र का चक्र पूरा करता है।

कल्प का मान : परमेष्ठी मंडल स्वायम्भू मंडल का परिभ्रमण कर रहा है यानी आकाशगंगा अपने से ऊपर वाली आकाशगंगा का चक्कर लगा रही है। इस काल को कल्प कहा गया यानी इसकी माप है 4 अरब 32 करोड़ वर्ष (4,32,00,00,000)। इसे ब्रह्मा का 1 दिन कहा गया। जितना बड़ा दिन, उतनी बड़ी रात अत: ब्रह्मा का अहोरात्र यानी 864 करोड़ वर्ष हुआ।

इस कल्प में 6 मन्वंतर अपनी संध्याओं समेत निकल चुके, अब 7वां मन्वंतर काल चल रहा है जिसे वैवस्वत: मनु की संतानों का काल माना जाता है। 27वां चतुर्युगी बीत चुका है। वर्तमान में यह 28वें चतुर्युगी का कृतयुग बीत चुका है और यह कलियुग चल रहा है। यह कलियुग ब्रह्मा के द्वितीय परार्ध में श्वेतवराह नाम के कल्प में और वैवस्वत मनु के मन्वंतर में चल रहा है। इसका प्रथम चरण ही चल रहा है। 
30 कल्प : श्वेत, नीललोहित, वामदेव, रथनतारा, रौरव, देवा, वृत, कंद्रप, साध्य, ईशान, तमाह, सारस्वत, उडान, गरूढ़, कुर्म, नरसिंह, समान, आग्नेय, सोम, मानव, तत्पुमन, वैकुंठ, लक्ष्मी, अघोर, वराह, वैराज, गौरी, महेश्वर, पितृ।

14 मन्वंतर : स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, दक्षसावर्णि, (10) ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, देवसावर्णि तथा इन्द्रसावर्णि।

60 संवत्सर : संवत्सर को वर्ष कहते हैं: प्रत्येक वर्ष का अलग नाम होता है। कुल 60 वर्ष होते हैं तो एक चक्र पूरा हो जाता है। इनके नाम इस प्रकार हैं:-

प्रभव, विभव, शुक्ल, प्रमोद, प्रजापति, अंगिरा, श्रीमुख, भाव, युवा, धाता, ईश्वर, बहुधान्य, प्रमाथी, विक्रम, वृषप्रजा, चित्रभानु, सुभानु, तारण, पार्थिव, अव्यय, सर्वजीत, सर्वधारी, विरोधी, विकृति, खर, नंदन, विजय, जय, मन्मथ, दुर्मुख, हेमलम्बी, विलम्बी, विकारी, शार्वरी, प्लव, शुभकृत, शोभकृत, क्रोधी, विश्वावसु, पराभव, प्ल्वंग, कीलक, सौम्य, साधारण, विरोधकृत, परिधावी, प्रमादी, आनंद, राक्षस, नल, पिंगल, काल, सिद्धार्थ, रौद्रि, दुर्मति, दुन्दुभी, रूधिरोद्गारी, रक्ताक्षी, क्रोधन और अक्षय।

संदर्भ : पुराण और कल्याण का ज्योतिषतत्त्वांक

क्या करे जिससे हर दिन हो मंगलकारी

क्या करे जिससे हर दिन हो मंगलकारी ...


                              ज्योतिष में सप्ताह के सात दिनों की प्रकृति और स्वभाव बताए गए हैं। इन सात दिनों पर ग्रहों का अपना प्रभाव होता है। अगर आप इन दिनों की प्रकृति और स्वभाव के अनुसार कार्यों को करें तो जरूर आपकी किस्मत साथ देगी। निश्चित ही हर काम में सफलता मिलेगी। अगर आपके सोचे हुए काम पूरे नही होते या उनका कोई परिणाम नही मिलता तो आप उन कार्यों को पुराणों, मुहूर्त ग्रंथों और फलति ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार बताए गए वार को करें। आप जरूर सफल होंगे।
जानिए किस दिन क्या करें..

रविवार- यह सूर्य देव का वार माना गया है। इस दिन नवीन गृह प्रवेश और सरकारी कार्य करना चाहिए। सोने के आभूषण और तांबे की वस्तुओं का क्रय विक्रय करना चाहिए या इन धातुओं के आभूषण पहनना चाहिए।

सोमवार- सरकारी नौकरी वालों के लिए पद ग्रहण करने के लिए यह दिन बहुत महत्वपूर्ण है। गृह शुभारम्भ, कृषि, लेखन कार्य और दूध, घी व तरल पदार्थों का क्रय विक्रय करना इस दिन फायदेमंद हो सकता है।

मंगलवार- मंगल देव के इस दिन विवाद एवं मुकद्दमे से संबंधित कार्य करने चाहिए। शस्त्र अभ्यास, शौर्य और पराक्रम के कार्य इस दिन करने से उस कार्य में सफलता मिलती है। मेडिकल से संबंधित कार्य और अॅापरेशन इस दिन करने से सफलता मिलती है। बिजली और अग्नि से संबधित कार्य इस दिन करें तो जरूर लाभ मिलेगा। सभी प्रकार की धातुओं का क्रय विक्रय करना चाहिए।

बुधवार- इस दिन यात्रा करना, मध्यस्थता करना, दलाली, योजना बनाना आदि काम करने चाहिए। लेखन, शेयर मार्केट का काम, व्यापारिक लेखा-जोखा आदि का कार्य करना चाहिए।

गुरुवार- बृहस्पति देव के इस दिन यात्रा, धार्मिक कार्य, विद्याध्ययन और बैंक से संबंधित कार्र्य करना चाहिए। इस दिन वस्त्र आभूषण खरीदना, धारण करना और प्रशासनिक कार्य करना शुभ माना गया है।

शुक्रवार- शुक्रवार के दिन गृह प्रवेश, कलात्मक कार्य, कन्या दान, करने का महत्व है। शुक्र देव भौतिक सुखों के स्वामी है। इसलिए इस दिन सुख भोगने के साधनों का उपयोग करें। सौंदर्य प्रसाधन, सुगन्धित पदार्थ, वस्त्र, आभूषण, वाहन आदि खरीदना लाभ दायक होता है।

शनिवार- मकान बनाना, टेक्रीकल काम, गृह प्रवेश, ऑपरेशन आदि काम करने चाहिए। प्लास्टिक , लकड़ी , सीमेंट, तेल, पेट्रोल खरीदना और वाद-विवाद के लिए जाना इस दिन सफलता देने वाला होता है।